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________________ १६६ समयसार मृत्तिकाकलशमिवादिमध्यांतेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च । ततः प्राप्यं विकार्यं निर्वत्यं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणामं कर्माकुर्वारणस्य सुखदुःखादिरूपं पुद्गलकर्मफलं जानतोपि ज्ञानिनः पुद्गलेन सह न कर्तृकर्मभावः ॥७८॥ णमति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । न अध्यय । गृह्णाति वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । उत्पद्यते वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । न-अव्यय । परद्रव्यपर्याय - सप्तमी एक ज्ञानी-प्रथमा एक० कर्ता । जानन् - प्रथमा एक० कृदन्त । अपि अव्यय । खलु अव्यय । पुद्गलकर्मफल- द्वितीया एकवचन | अनन्तं द्वितीया एकवचन || ७८ ॥ अपने परिणामको जानता हुआ भी पुद्गलकर्मका न कर्ता है, न कर्म है । इस विवरणके जानने के बाद यह जिज्ञासा होती है कि जब पुद्गलकर्मके फलको जीव जानता है, अनुभवता है तब उस जीवका पुद्गलकर्मके साथ कर्तृकर्मभाव क्यों नहीं होता ? इस जिज्ञासा के समाधान में यह गाथा आई है । तथ्यप्रकाश - ( १ ) सुख - दुःखादिरूप पुद्गलकर्मविपाक पुद्गलमें ही प्राप्य, विकार्य, निर्वत्य है । (२) सुख-दुःखादिरूप पुद्गलकर्मविपाकका सान्निध्य पाकर जो तदनुरूप प्रतिफलन उपयोग में हुआ वह प्रतिफलन जीवमें व्याप्य विकार्य व निर्वत्यं है । (३) पुद्गलकर्मफलका जाननहार होकर भी जीव पुद्गलकर्मका न कर्ता है न भोक्ता है । सिद्धान्त - - ( १ ) जीव पुद्गलकर्मफलका जाननहार है । ( २ ) जीव पुद्गल कर्मफलविषयक ज्ञेयाकार परिणत मात्र अपने को जानता है । ( ३ ) जीव पुद्गलकर्मका न कर्ता है, न भोक्ता है । दृष्टि - १- अपरिपूर्ण उपचरित स्वभावव्यवहार ( १०५ ) । २- कारककारकि भेदक सद्भूतव्यवहार (७३) । प्रतिषेधक शुद्धनय ( ४६८ ) । प्रयोग - कर्मफलको कर्ममें अन्तर्व्याप्य निरखकर उसके प्रतिफलनसे प्रभावित न होकर अपने अविकार सहज ज्ञानस्वभाव में परमविश्राम करनेका पौरुष करना ॥७८॥ अब यहाँ पूछते हैं कि जीवके परिणामको तथा अपने परिणामको और अपने परिगामके फलको नहीं जानने वाले पुद्गलद्रव्यका जीवके साथ कर्तृकर्मभाव है या नहीं उसका उत्तर कहते हैं [ पुद्गलयं श्रपि ] पुद्गल द्रव्य भी [परद्रव्यपर्याये] परद्रव्यके पर्याय में [तथा ] उस प्रकार [नापि ] नहीं [ परिणामति] परिणमन करता है, [ न गृह्णाति ] उसको ग्रहण भी नहीं करता और [न उत्पद्यते ] न उत्पन्न होता है, किन्तु [ स्वर्क: भावः ] अपने भावोंसे हो [ परिणमति ] परिरणमन करता है । तात्पर्य -- जैसे जीवका पुद्गल के साथ कर्तृकर्मभाव नहीं, इसी प्रकार पुद्गलद्रव्यका
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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