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________________ कर्तृकर्माधिकार १६५ पुद्गलकर्मफलं जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन कर्तृकर्मभावः किं भवति, किं न भवतीति चेत्विपरिणमदि हिदि उप्पज्जदि । परदव्यपज्जाए । गाणी जाणंती विहु पुग्गलकम्मफलमांतं ॥ ७८ ॥ ज्ञानी सुजानता भी पुद्गलकमोंके फल अनन्तोंको । · नहि परिरणमे न पाये, उपजे न परार्थभावों में ॥ ७८ ॥ नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये। ज्ञानी जानन्नपि खलु पुद्गलकर्मफलमनंतं ॥७८॥ यतो यं प्राप्यं विकार्यं निर्वत्यं च व्याप्यलक्षणं सुखदुःखादिरूपं पुद्गलकर्मफलं कर्म पुद्मलद्रव्येण स्वयमंतव्यपिकेन भूत्यादिमध्यांतेषु व्याप्य तद्गृह्णता तथा परिणमता तथोत्पद्यमानेन च क्रियमाणं जाननपि हि ज्ञानी स्वयंमंतर्व्यापको भूतवा बहिःस्थस्य परद्रव्यस्य परिणामं नामसंज्ञ - ण, वि, ण, प, परदव्वपज्जाय, पाणि, जाणंत, वि. हु, पुग्गलकम्मफल, अनंत । धातुसंज्ञ-परि-नमनश्रीभावे, गिरह ग्रहणे, उव-पज्ज गती । प्रातिपदिक—न, अपि न नः परद्रव्यपर्याय, ज्ञानिन, जानत् अपि, खलु पुद्गलकर्मफल, अनन्त । मूलधातु परिणम प्रह्नत्वे ग्रह उपादाने क्रयादि, उत्-पद गतो दिवादि, ज्ञा अवबोधने, फल निष्पत्तौ भ्वादि । पविवरण- न-अव्यय । अपि-अव्यय । परिपुद्गलकर्मके फलोंको [ जानन् अपि ] जानता हुआ भी [ खलु] निश्चयसे [परद्रव्यपर्याये ] परद्रव्यके पर्याय में [नापि ] न तो [ परिणमति ] परिणमन करता है [ न गृह्णाति ] न उसमें कुछ ग्रहण करता तथा [न उत्पद्यते ] न उसमें उपजता है । तात्पर्य - प्रात्मा पुद्गलकर्मके फलको जानता है तो भी उसका पुद्गलकर्मके साथ कर्ता कर्मभाव नहीं है । टोकार्थ -- जिस कारण प्राप्य विकार्य और निर्वर्त्य ऐसे जिसका लक्षण व्याप्य है ऐसा तीन प्रकारका सुखदुःखादिरूप पुद्गलकर्मका फल जो कि स्वयं अंतर्व्यापिक होकर, प्रादि मध्य अंत में व्याप्त होकर ग्रहण करते हुए, उसी प्रकार परिणमन करते हुए तथा उसी प्रकार उत्पन्न होते हुए पुद्गल द्रव्यके द्वारा क्रियमाणको जानता हुआ भी ज्ञानी, आप अंतर्व्यापक होकर बाह्य स्थित परद्रव्यके परिणामको मिट्टी मोर घड़ेकी भांति श्रादि, मध्य और अन्त में व्याप्त कर नहीं ग्रहण करता, उस प्रकार परिणमन भी नहीं करता तथा उस प्रकार उत्पन्न भी नहीं होता ? इस कारण प्राप्य विकार्य घोर निर्वर्त्यरूप व्याप्यलक्षण परद्रव्यके परिणामरूप कर्मको नहीं करते हुए, मात्र सुख-दुःखरूप कर्मके फलको जानते हुए भी ज्ञानीका पुदगलके साथ कर्तृकर्मभाव नहीं है । भावार्थ- नैमित्तिक भावको जानता हुमा भी जीव न निमित्तका कर्ता है और न निमित्तका कर्म ( कार्य ) है । प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व गाथा में बताया गया था कि जीव कर्मविपाकादिनिमित्तक
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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