________________
समयसार
१६४ व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च । ततः प्राप्यं विकार्य निर्वत्यं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणाम कर्माकुर्वाणस्य स्वपरिणाम जानतोपि ज्ञानिनः पुद्गलेन सह न कर्तृकर्मभावः ॥७॥ णमति-वर्तमान लद मध्यम पुरुष एक० । न-अव्यय । गृह्णाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकल । उत्पद्यतेवर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । न-अन्यय । परद्रव्यपर्याधे-सप्तमी एक० । शानी-प्रथमा एक० कर्ता। जानन्-प्रथमा एक० कृदन्त । अपि-अव्यय । खलु-अव्यय । स्वकपरिणाम-द्वितीया एक० । अनेकविध-- द्वितीया एकवचन ।।७७|| जानता भी हो तो भी परद्रव्यका, पुद्गलकर्मका कर्ता नहीं है।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि पुद्गलफर्मको जानता भी है । ज्ञानी तो भी पुद्गलकमके साथ जीवका कर्तृकर्मभाव नहीं है। इस विवरणके जाननेके बाद यह जिज्ञासा होती है कि पुद्गलकर्मके साथ क्षयोपशमादिका निमित्त पाकर हुए संकल्प-विकल्प नादि अपने परिणामको तो जीव जानता है फिर तो उस जीवका पुद्गलकर्मके साथ कर्तृ.। कर्मभाव होना ही चाहिये । इस जिज्ञासाका समाधान करनेके लिये यह गाथा कही गई है।
तथ्यप्रकाश-(१) पुद्गलकर्मके क्षयोपशमसे या उदयसे हुए संकल्प-विकल्परूप प्रात्मपरिणामको राग सुख-दुःख आदि आत्मपरिणामको यह जीव जानता है, फिर भी यह पुद्गलकर्मका न कर्ता है, न कर्म है। (२) पुद्गलकर्म तो अपने विपाकोदयादि अवस्थाका कर्ता है, जीवपरिणामका कर्ता नहीं है । (३) कर्मके बन्ध, विपाक प्रादि परिणमन कर्ममें हो व्याप्य, विकार्य व निर्वत्यै हैं । (४) जीबके संकल्प-विकल्प सुखवेदन दुःखवेदन प्रादि परिणाम जीवमें ही व्याप्य, विकार्य व निर्वयं हैं । (५) ज्ञेय ज्ञानमें प्रतिभासित हो यह ज्ञेयके प्रमेयत्व गुणका प्रताप है, ज्ञान ज्ञेयविषयक ज्ञान करे यह शानस्वभावकी वृत्ति है।
सिद्धान्त-(१) पुद्गलकर्मविपाकोदयका निमित्त पाकर हुए सुख-दुःखादि जीवपरिरणामको जीव अनुभवता है । (२) जीवके सुख-दुःखादि परिणामके निमित्तभूत कर्मविपाकोदय। का कर्ता पुद्गलकम है ।
दृष्टि-- १- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (५३) ! २-- सभेद अशुद्ध निश्चयः । नय (४६अ)।
प्रयोग-पुद्गल कर्मसे भिन्न, पुद्गल कर्मनिमित्तक विकारविभावोंको मात्र जानकर उस ज्ञेयविकल्पसे भी हटकर अपने सहज अविकारस्वरूपमें लीन होनेका पौरुष करना ॥७॥
अब पूछते हैं कि पुद्गलकर्मके फलको जानते हुए जीवका पुद्गलके साथ कर्तृ कमभाव है या नहीं ? उसका उत्तर कहते हैं- [ज्ञानी] ज्ञानी [अनंत] अनन्त [पुद्गलकर्मफल] ।