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________________ १७२ समयसार च्छियणस्स एवं यादा अप्पाणमेव हि करेदि । वेदयदि पुणो तं चैव जाण यत्ता दु अत्ताणं ॥ ८३ ॥ निश्चयनयदर्शन में श्रात्मा करता है आत्माको हो । अपने ही श्रात्मा अशुभता भयो जान निश्चयनयस्यैवमात्मानेव हि करोति । वेदयते पुनस्तं चैव जानीहि आत्मा त्वात्मानं ||३|| यथोत्तरंग निस्त रंगावस्थयोः समीरसंचरणासंचररणनिमित्तयोरपि समीरपारावारयोव्यप्यव्यापकभावाभावात्कर्ता कर्मत्वासिद्धौ पारावार एव स्वयंमंतर्व्यापका भूत्वादिमध्यांतेषूत्तरंगनिस्तरंगावस्थे व्याध्योत्तरंग निस्तरंग स्वात्मानं कुर्वन्नात्मानमेकमेव कुर्वन् प्रतिभाति न पुनरन्यत् । यथा स एव च भाव्यभावकभावाभावात्परभावस्य परेणानुभवितुमशक्यत्वादुत्तरंग निस्तरंग स्वात्मानमनुभवन्नात्मानमेकमेवानुभवन् प्रतिभाति न पुनरन्यत् । तथा ससंसार निः संसारावस्थयोः नामसंज्ञ - च्छिणय, एवं, अत्त, अप्प, एव, हि, पुणो, त, च, एव, अत्त, दु, अत्त । धातुसंज्ञकर करणे, वेद वेदने, जाण अवबोधने : प्रातिपदिक निश्चयनय, एवं आत्मन्, आत्मन् एव हि पनर् भोभोग्यभाव है, यह अब आगेकी गाथा में कह रहे हैं - [ निश्चयनयस्य ] निश्वयनय के मतमें [एवं ] इस प्रकार [ श्रात्मा] श्रात्मा [ श्रात्मानं एव हि ] अपने को ही [ करोति ] करता है [तु पुनः ] और फिर [ श्रात्मा] वह श्रात्मा [तं चैव श्रात्मानं] अपनेको हो [ वेदयते ] भोगता है ऐसा तू [जानीहि ] जान । तात्पर्य - - वस्तुत: आत्मा अपने परिणमनका ही करता है और अपने परिणमनको हो भोगता है । टोकार्थ जैसे पत्रनके चलने और न चलनेका निमित्त पाकर तरंगों का उठना श्रीर विलय होना रूप दो अवस्था होनेपर भी पवन और समुद्र के व्याप्यव्यापकभाव के अभाव से कर्ताकर्मपकी प्रसिद्धि होनेपर समुद्र ही श्राप उन अवस्थायोंमें अंतयनिक होकर प्रादि, मध्य और अंत में उन अवस्थाओं में व्याप्त होकर उत्तरंगनिस्वरंग रूप अपने एकको हो करता हुआ प्रतिभासित होता है, किसी दूसरेको करता हुआ प्रतिभासित नहीं होता थोर जैसे कि वही समुद्र उस पवन और समुद्रके भाव्यभावक भावके प्रभाव से परभावको पररूपसे अनुभव करने के सामर्थ्य से उत्तरंग निस्तरंगस्वरूप अपने को ही अनुभवता हुआ प्रतिभासित होता है, अन्य को प्रभवता हुआ प्रतिभासित नहीं होता । उसी प्रकार पुद्गलकर्मके उदयके होने व न होने का निमित्त पाकर जीवको ससंसार और निःसंसार ये दो अवस्था होनेपर भी पुद्गलकर्म और जीवके व्याप्यव्यापकभाव के प्रभाव से कर्ता कर्मरूपकी प्रसिद्धि होनेपर जीव ही आप अंतव्यपक
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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