SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्तृकर्माधिकार पुद्गलकर्मविपाकसंभवासंभवनिमित्तयोरपि पुद्गल कर्मजीवयोव्याप्यव्यापकभावाभावात्कत कर्मस्वासिद्धौ जीव एव स्वयमतव्यापको भूत्वादिमध्यांतेषु ससंसारनिःसंसारावस्थे व्याप्य ससंसारं निःसंसारं वात्मान कुर्वन्नात्मानमेकमेव कुर्वन् प्रतिभातु मा पुनरन्यत् । तथायमेव च भाव्यतत् च एव, आत्मन्, आत्मन् । मुलधातु.. निस्-चि इये, अत सातत्यगतौ, डुकृञ् करणे, विद चेतनाख्याननिवासेषु चुरादि। पदविवरण --निश्चयनयश्य-षष्ठी एक० । एवं-अव्यय । आत्मा-प्रथमा एकवचन । आत्मानं-द्वितीया एक० । एउया । हिसारय । सरोसिना लाइ अन्य पुरुष एक० । वेदयतेहोकर प्रादि, मध्य और अन्त में ससंसार निःसंसार अवस्थामें व्याप्त होकर ससंसार निःसंसार रूप प्रात्माको करता हुअा अपने एकको ही करता हुप्रा प्रतिभासित होो, अन्यको करता हुमा प्रतिभासित मत होयो । उसी प्रकार यह जीव भाव्यभावकभावके प्रभावसे परभावको परके द्वारा अनुभव करनेकी असामर्थ्य होनेसे ससंसार निःसंसार रूप एक अपनेको ही अनुभवता हुप्रा प्रतिभासित होओ, अन्यको करता हुवा प्रतिभासित मत होनो । भावार्य-प्रात्माकी ससंसार निःसंसार अवस्था परद्रव्य पुद्गल कर्मक सद्भाव व प्रभावके निमित्तसे है, वहाँ उन अवस्थारूप प्राप ही यह प्रात्मा परिणमन करता है इसलिये प्रात्मा अपना ही कर्ता भोक्ता है, निमित्तमात्र जो पुद्गलकर्म है, उसका कर्ता भोक्ता नहीं है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व तीन गाथावों में बताया था कि जोवपरिणाम व पुद्गल कर्ममें परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव होनेपर भी उनमें कर्तृकर्मत्व व भोवतृभोग्यत्व नहीं है । इस विवरणको सुनकर यह जिज्ञासा होती है तो फिर निश्चयसे प्रारमा किसे करता है व किसे भोगता है, इसका समाधान इस गाथामें किया गया है । तथ्यप्रकाश-- १- निमित्तनैमित्तिकमें व्याप्यव्यापकभाव नहीं होता । २- उपादान उपादेयमें ही व्याप्यव्यापक भाव होता है । ३- निमित्तसान्निध्य में होने वाला नैमित्तिक निमित्तका प्रभाव होनेपर हट जाता है । ४-- जोवकी शुद्ध व अशुद्ध अवस्थायें जीवमें व्याप्प हैं अतः जीवको परिणतियोंका जीव ही कर्ता है व जीव ही भोक्ता है। ___ सिद्धान्त----१-जीववी ससंसार अवस्था पुद्गलकर्मविपाकसंभवनिमित्तक है । २-जीव को निःसंसार अवस्था पुद्गलकर्मविपाकासंभवनिमित्तक है । ३--जीवको अवस्था जीवमें अन्तर्याप्य होनेसे जीव अपनी अवस्थाका ही कर्ता भोक्ता है। दृष्टि-१-उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिकनय (२४) । २-उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्या. थिकनय (२४प्र)। ३-कारककारकिभेदक सद्भुतव्यवहारनय (७३), कारक कारकिभेदक प्रशुद्ध सद्भूतव्यवहारनय (७३ प्र) । प्रयोग--विकारोंको नैमित्तिक जानकर उनसे उपेक्षा करके अपनी शुद्ध परिणतिके
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy