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________________ १७४ समयसार भावकभावाभावात् परभावस्य परेणानुभवितुमशक्यत्वात्ससंसारं निःसंसार वात्मानमनुभवन्नास्मानमेकमेवानुभवन् प्रतिभातु मा पुनरन्यत् ।।८३।। वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । पुन:-अव्यय । तं-द्वितीया एक । च-अव्यय । एव-अव्यय । जानीहिआज्ञार्थ लोट् मध्यम पुरुष एक । आत्मा-प्रथमा एक । तु-अव्यय । आत्मानं-द्वितीया एकवचन ।।३।। अर्थ सहजशुद्ध स्वभावमें दृष्टि रखना चाहिये ।।३।। प्रब व्यवहारको दिखलाते हैं:-[तु व्यवहारस्य] परंतु व्यवहारनयके दर्शनमें [पात्मा] प्रात्मा [नेकविध] अनेक प्रकारके [पुद्गलकर्म] पुदगल कर्मको [करोति ] करता है [पुनः] और फिर [तदेष] उस ही [अनेकविध] अनेक प्रकारके ]पुद्गलकम] पुद्गलकर्म को वेदयते] भोगता है। तात्पर्य-निमित्तनैमित्तिकभाव होने के कारण प्रात्मा व्यवहारनयसे पुद्गलकर्मको करता है व पुद्गल कर्मको भोगता है। ___टोकार्थ-जैसे अन्ताप्यव्यापकभावसे मिट्टी घड़ेको करती है तथा भाव्यभावकभाव से मिट्टी घड़ेको भोगती है तो भी बाह्य व्याप्यव्यापकभावसे कलश होनेके अनुकूल व्यापारको अपने हस्तादिकसे करने वाला तथा कलशमें भरे जलके उपयोगसे हुए तृप्तिभावको भाव्यभावक भावसे अनुभव करने वाला कुम्हार इस कलशको बनाता तथा भोगता है, ऐसा लोकोंका अनादिसे प्रसिद्ध व्यवहार रहा है। उसी प्रकार अन्तप्प्यापकभावसे पुद्गलद्रव्य पोद्गलिक कर्मको करता है और भाव्यभावक भावसे पुद्गल द्रव्य ही उस कर्मको अनुभवता (भोगता) है तो भी बाह्य व्यायव्यापकभावसे अज्ञानसे पुद्गल कर्मके होनेके अनुकूल अपने रागादि परिजामको करता हुमा और पुद्गलकर्मके उदय होने से उत्पन्न विषयोंकी समीपतामें होने वाली अपनो सुखदुःखरूप परिणतिको भाव्यभावकभावसे अनुभव करने वाला जीव पुद्गलकर्मको करता है और भोगता है । ऐसा अज्ञानी लोकोंका प्रनादिसंसारसे व्यवहार प्रसिद्ध है। ___ भावार्थ--- परमार्थसे पुद्गलकर्मको पुद्गलद्रव्य ही करता है और पुद्गलकर्मके होने के अनुकूल अपने रागादिपरिणामोंको जीव करता है, उसके इस निमित्तनैमित्तिकभावको देखकर मज्ञानी जीवको यह भ्रम हो जाता है कि जोव ही पुद्गल कर्मको करता है । सो यह अनादि प्रज्ञानसे प्रसिद्ध व्यवहार है। और जब तक जीव व पुद्गलका भेदज्ञान नहीं है, तब तक जीवको जीव व पुद्गलको प्रवृत्ति एक सरीखी दीखती है, श्रीगुरु महाराज दोनोंमें भेदज्ञान कराके परमार्थ जीवका स्वरूप दिखलाकर अज्ञानीके प्रतिभासको व्यवहार कहते हैं । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि निश्चयनय के सिद्धान्त में प्रात्मा अपने प्रात्माको ही करता है व. अपने प्रात्माको ही भोगता है । इस कथनपर यह
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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