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________________ १७५ कर्तृकर्माधिकार अथ ध्यवहारं वर्शयति - ववहारस्स दु श्रादा पुग्गलकम करदि गायावह । तं चेव पुणों वेयइ पुग्गलकम्म अणेयविहं ॥४॥ व्यवहारके मतोंमें, कर्ता यह जोध विविध कर्मोंका । भोक्ता भी नानाविध, उन ही पौद्गलिक कर्मोंका ॥४॥ व्यवहारस्थ त्वात्मा पुद्गलकर्म करोति नैकविधं । तच्चत्र पुनवेदयते पुद्गलकमनिकविध ॥१४॥ यथांताप्यव्यापकभावेन मृत्तिकया कलशे क्रियमाणे भाच्यभावकभावेन मृत्तिकर्यवानु. भूयमाने च बहिव्ययित्यापकभावेन कलशसंभवानुकूल व्यापारं कुर्वाणः कलशकृततोयोपयोगजां तृप्ति भाव्यभावकभावनानुभवंश्च कुलालः कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूढोस्ति तावद्ध्यवहारः तयांताप्यव्यापकभावेन पुद्गलद्रव्येण कर्मणि क्रियमारणे भाव्यभावकभावेन पुद्गलद्रव्येणैवानुभूयमाने च बहियाप्यव्यापकभावेनाज्ञानात्पुद्गलकर्मसंभवानुकूलं परिणाम नामसंज्ञ-बबहार, दु, अत्त, पुग्गलकम्म, णेयविह, त, च, एब, पुणो, पुगलकम्म, अणेयविह । धातुसंजकर करणे, वेद वेदने । प्रातिपदिक-व्यवहार, तु, आत्मन्, पुद्गलकर्मन्, न, एकविध, तत्, च, एव, पुनः पुद्गलकर्मन्, अनेकविध । मूलधातु---दि-अव हुन हरणे भ्वादि, विद चेतनाख्याननिवासेषु चुरादि, विध विधाने तुदादि । पदविवरण-व्यवहारस्य-षष्ठी एक० । तु-अव्यय । आत्मा-प्रथमा एक० कर्ता । करोतिजिज्ञासा हुई कि तब फिर व्यवहारनयके सिद्धान्त में आत्मा किसको करता है व किसको भोगता है ? इसके समाधान में यह गाथा पाई है । तथ्यप्रकाश- १- अन्तव्ययिव्यापकभावसे पुद्गलकर्म उसी पुद्गलकार्माणध्यके द्वारा किये जाते हैं । २-- अन्तर्भाव्यभावकभावसे पुद्गलकर्मविपाक उसी पुद्गल कार्माणद्रव्य के द्वारा अनुभूयमान होता है। ३- बहिव्याप्यव्यापकभावसे पुद्गलकर्मसंभवानुकूल जीवपरिणाम होनेसे अज्ञानी जीवमें पुद्गलकर्म करनेका आरोप होता है । ४- बहिर्भाव्यभावकभावसे पुद्गलकर्मविपाकनिमित्तक सुखदुःखपरिणामका अनुभव होनेसे अज्ञानी जीवमें पुद्गलकर्म के भोगनेका प्रारोप होता है। . __ सिद्धान्त--(१) पुद्गलकालबके निमित्तभूत जोवपरिणाममें (जीवमें) पुद्गलकर्मकर्तृत्वका प्रारोप होता है । (२) पुद्गलकर्मविपाकनिमित्तज मुख-दुःख परिणतिको अनुभवने वाले जीवमें पुद्गलकर्मभोक्तृत्वका आरोप होता है । दृष्टि--- १- परकर्तृत्व असद्भूतव्यवहार (१२६) । २- परभोक्तृत्व असद्भूतव्यवहार (१२८ अ)। प्रयोग---जीव पुद्गलकर्मको करता है, भोगता है, इस कथनमें निमित्त बतानेका
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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