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कर्तृकर्माधिकार अथ ध्यवहारं वर्शयति -
ववहारस्स दु श्रादा पुग्गलकम करदि गायावह । तं चेव पुणों वेयइ पुग्गलकम्म अणेयविहं ॥४॥ व्यवहारके मतोंमें, कर्ता यह जोध विविध कर्मोंका ।
भोक्ता भी नानाविध, उन ही पौद्गलिक कर्मोंका ॥४॥ व्यवहारस्थ त्वात्मा पुद्गलकर्म करोति नैकविधं । तच्चत्र पुनवेदयते पुद्गलकमनिकविध ॥१४॥
यथांताप्यव्यापकभावेन मृत्तिकया कलशे क्रियमाणे भाच्यभावकभावेन मृत्तिकर्यवानु. भूयमाने च बहिव्ययित्यापकभावेन कलशसंभवानुकूल व्यापारं कुर्वाणः कलशकृततोयोपयोगजां तृप्ति भाव्यभावकभावनानुभवंश्च कुलालः कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूढोस्ति तावद्ध्यवहारः तयांताप्यव्यापकभावेन पुद्गलद्रव्येण कर्मणि क्रियमारणे भाव्यभावकभावेन पुद्गलद्रव्येणैवानुभूयमाने च बहियाप्यव्यापकभावेनाज्ञानात्पुद्गलकर्मसंभवानुकूलं परिणाम नामसंज्ञ-बबहार, दु, अत्त, पुग्गलकम्म, णेयविह, त, च, एब, पुणो, पुगलकम्म, अणेयविह । धातुसंजकर करणे, वेद वेदने । प्रातिपदिक-व्यवहार, तु, आत्मन्, पुद्गलकर्मन्, न, एकविध, तत्, च, एव, पुनः पुद्गलकर्मन्, अनेकविध । मूलधातु---दि-अव हुन हरणे भ्वादि, विद चेतनाख्याननिवासेषु चुरादि, विध विधाने तुदादि । पदविवरण-व्यवहारस्य-षष्ठी एक० । तु-अव्यय । आत्मा-प्रथमा एक० कर्ता । करोतिजिज्ञासा हुई कि तब फिर व्यवहारनयके सिद्धान्त में आत्मा किसको करता है व किसको भोगता है ? इसके समाधान में यह गाथा पाई है ।
तथ्यप्रकाश- १- अन्तव्ययिव्यापकभावसे पुद्गलकर्म उसी पुद्गलकार्माणध्यके द्वारा किये जाते हैं । २-- अन्तर्भाव्यभावकभावसे पुद्गलकर्मविपाक उसी पुद्गल कार्माणद्रव्य के द्वारा अनुभूयमान होता है। ३- बहिव्याप्यव्यापकभावसे पुद्गलकर्मसंभवानुकूल जीवपरिणाम होनेसे अज्ञानी जीवमें पुद्गलकर्म करनेका आरोप होता है । ४- बहिर्भाव्यभावकभावसे पुद्गलकर्मविपाकनिमित्तक सुखदुःखपरिणामका अनुभव होनेसे अज्ञानी जीवमें पुद्गलकर्म के भोगनेका प्रारोप होता है। .
__ सिद्धान्त--(१) पुद्गलकालबके निमित्तभूत जोवपरिणाममें (जीवमें) पुद्गलकर्मकर्तृत्वका प्रारोप होता है । (२) पुद्गलकर्मविपाकनिमित्तज मुख-दुःख परिणतिको अनुभवने वाले जीवमें पुद्गलकर्मभोक्तृत्वका आरोप होता है ।
दृष्टि--- १- परकर्तृत्व असद्भूतव्यवहार (१२६) । २- परभोक्तृत्व असद्भूतव्यवहार (१२८ अ)।
प्रयोग---जीव पुद्गलकर्मको करता है, भोगता है, इस कथनमें निमित्त बतानेका