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________________ समयसार कुर्वाणः पुद्गलकर्मविपाकसंपादितविषयसनिधिप्रधावितां सुखदुःखपरिणति भाव्यभावकभावेनानु. भवंश्च जोवः पुद्गलकर्म करोत्यनुभवति चेत्यज्ञानिनामासंसारप्रसिद्धोस्ति तावद्व्यवहारः ।।४।। वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । अनेकविध-द्वितीया एकवचन कर्मविशेषण । पुदगलकर्म-द्वितीया एक० कर्म । तत्-द्वितीया एक० । च-अव्यय । एवं-अव्यय । वेदयते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । पुद्गलकर्म-द्वि० एक० । अनेकविध-द्वितीया एकवचन कर्मविशेषण ।।८४11 . प्रयोजनमात्र जानकर निमित्तनैमित्तिक भावसे उपेक्षा कर अपने प्रात्मस्वरूप में उपयुक्त होनेका पौरुष करना ।।८४॥ अब इस उक्त व्यवहारको दूषित करते हैं:-[यदि] यदि [मात्मा] प्रात्मा [इदं] इस [पुद्गलकर्म] पुद्गलकर्मको [करोति ] करे [च और [तत् एवं] उसी को [वेदयते भोगे सो [सः] वह [विक्रियाव्यतिरिक्तः] आत्मा दो क्रियासे अभिन्न [प्रसजति] प्रसक्त होता है सो यह [जिनावमतं] जिनदेवका अवमत है याने जिनमतसे अलग है। तात्पर्य-प्रात्मा अपने परिणामको तो करता भोगता है ही, अब यदि यह मान लिया जाय कि प्रात्मा पुद्गलकर्मको भी करता है व पुद्गलकर्मको भी भोगता है तो यह जिनमत नहीं किन्तु पूर्ण मिथ्या है । . टीकार्थ-निश्चयतः यही सारी ही क्रिया परिणामस्वरूप होनेके कारण परिणामसे कुछ भिन्न वस्तु नहीं है और परिणाम भी परिणाम तथा परिणामी द्रव्य दोनोंकी अभिन्नवस्तुता होनेसे परिणामीसे पृथक नहीं है । इस प्रकार किया और क्रियावानकी अभिन्नता है । ऐसी वस्तुको मर्यादा होनेपर जैसे जीव व्याप्यव्यापकभावसे अपने परिणामको करता है और भाव्यभावकभावसे उसी अपने परिणामको अनुभवता है, भोगता है, उसी तरह व्याप्यव्यापक भावसे पुद्गलकर्मको भी करे तथा भाध्यभावकभावसे पुद्गलकर्मका ही अनुभव करे, भोगे तो अपनी प्रौर परकी मिली दो क्रियानोंका प्रभेद सिद्ध हुमा। ऐसा होनेपर अपने और परखे भेदका अभाव हुआ । इस प्रकार अनेकद्रव्यस्वरूप एक आत्माको अनुभवने वाला जीव मिथ्यादृष्टि होता है । परन्तु ऐसा वस्तुस्वरूप जिनदेवने नहीं कहा है, इसलिये जिनदेवके भतके बाहर है। भावार्थ-जो पुरुष एक द्रव्यको दो द्रव्योंकी क्रियानोंका कर्ता मानता है, यह मिथ्याष्टि है, क्योंकि दो द्रव्योंकी क्रिया एक द्रव्यसे मानना यह जिनदेवका मत नहीं है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि जीव पुद्गलकर्मको करता है व भोगता है यह व्यबहारनयका मत है । अब उस व्यवहारको दूषण देनेके लिये यह माथा प्राई है। तथ्यप्रकाश--(१) परिणति क्रिया पर्यायसे भिन्न नहीं है । (२) पर्याय पर्यायवान
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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