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________________ कर्तृकर्माधिकार प्रथनं वूषयति जदि पुग्गलकम्ममिणं कुब्वदि तं चेव वेदयदि आदा। दो किरियावदिरित्तो पसज्जए सो जिणावमदं ॥८॥ यदि प्रास्मा करता है, पर भोगता पौद्गलिक कर्मोको। सो बोनों हि क्रियानों से सन्मयता प्रसस्त हुई ॥५॥ यदि पुद्गलकर्मेदं करोति तच्चैव वेदयते आत्मा । द्वित्रियाऽऽव्यतिरिक्तः प्रसजति स जिनावमतं ।।८ इह खलु क्रिया हि तावदखिलापि परिणामलक्षणतया न नाम परिणामतोस्ति भिन्ना, परिणामोपि परिणामपरिणामिनोरभिन्नवस्तुत्वात्परिणामिनो न भिन्नस्ततो या काचन क्रिया किल सकलापि सा कियावतो न भिन्नेति क्रियाकोरव्यतिरिक्ततायां वस्तुस्थित्या प्रतपत्यां यथा व्याप्यव्यापकभावेन स्वपरिणामं करोति, भाव्यभावकभायेन तमेवानुभवति च जीवस्तया व्याप्यव्यापकभावेन पुद्गलकर्मापि यदि कुर्यात भाव्यभावकभावेन तदेवानुभवेच्च ततो यं स्व. परसमवेतक्रियाद्वयाव्यतिरिक्ततायां प्रसजंत्यां स्वपरयो परस्परनिभागप्रत्तास्तम्जादने कामना मात्मानमनुभवन्मिध्यादृष्टितया सर्वशायमतः स्यात् ॥५॥ नामसंकजदि, पगलकम्म, इम, त, च, एव, अत्त, दोकिरियावदिरित, त, जिणावमद । धातुः संश-कुल्य करणे, वेद वेदने, प-सज्ज समवाये । प्रातिपविक-यदि, पुद्गलकर्मन्, इदम्, तत्, च, एव, आत्मन्, द्विक्रियाऽऽव्यतिरिक्त, तत्, जिनावमत । मूलधातु-विद चेतनाख्याननिवासेषु चुरादि, रिचिर विरे. चने धादि, रिच वियोजनसम्पर्चनयोः, प्र-षच समवाये । पबविवरण-यदि-अध्यय। पुद्गलकर्म-द्वितीया एकवचन । इदम्-द्वितीया एक० । करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । तत्-द्वितीया एक० । चअव्यय ! एव-अव्यय । वेदयते-वर्तमान लद् अन्य पुरुष एक० । आत्मा-प्रथमा एक० कर्ता । द्विक्रियाऽव्यतिरिक्त:-प्रथमा एक० । प्रसजति-वर्तमान लट् अन्य पु० एक० । स:-प्रथमा एक० । जिनावमत-प्रथमा एकवचन ।।८५॥ (द्रव्य) से भिन्न नहीं है । (३) किया क्रियागान (द्रव्य) से भिन्न नहीं है । (४) जीव अपनी हो क्रिया कर सकता है । (५) यदि जीय अपनेको भी करे, भोगे तथा पुद्गलकमको भी करे, भोगे तो यह जीव है या कर्म है यह विभाग ही न बन सकेगा और न यों कोई सत् रह सकेगा । (६) व्यवहारसे जीव पुद्गलकर्मको करता, भोगता है इसका अर्थ उपादानरूपसे नहीं है, किन्तु इससे मात्र निमित्तनमित्तिक भाव ही समझकर वस्तुत: जीवको मकर्ता निरखना। सिद्धान्त-(१) एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको परिगति नहीं कर सकता । (२.) निमित्त बसाने के लिये एक द्रव्यमें दूसरे द्रव्यका कर्तृत्व प्रारोपित होता है। दृष्टि- १- परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय (२६) । २- परकर्तृत्व अनुपचारित प्रसद्भूतव्यबहार (१२९)।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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