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समयसार रागिणो नित्यमनाःसुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्विबुध्यध्वमंधाः । एततेतः पदमिदमिदं यत्र चैतन्य. धातुः शुद्धः शुद्धः स्वरसभरतः स्थायिभावत्वमेति ।।१३।।।। २०१.२०२॥ सम्वानमयो मबागमधर:-प्र० ए० । वि अपि-अव्यय । अपाणं आत्मानं-द्वितीया एक० । अयाणतो अजानन्-प्रथमा एकः । अणापयं अनात्मानं-द्वि० एक । त्र-अव्यय । अवि अमि-अव्यय । सो स:-प्र० एक० । अयाणतो अजानन्-प्रथमा एक० । कह कथ-अव्यय । होदि भवति-पर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । सम्मक्ट्रिी सम्यग्दृष्टि:-प्रथमा एक० । जीवाजीवे-प्रथमा बह०। जीवाजीवी-प्रथमा दियचन । अयाणतो . अजानन्त:--प्रथमा बहुवचन ॥ २०१-२०२ ।।
चैतन्यस्वरूपमय है उसको प्राप्त होनो याने पर 4 परभावसे विविक्त शुद्ध चैतन्यरूप अपने भाबका प्राश्रय करो।
प्रसंगविवरण----अनन्तरपूर्व गाथावोंमें यह प्रसिद्ध किया गया था कि रागी पुरुष याने औपाधिक भावोंमें लगा रखने वाला पुरुष सम्यादृष्टि नहीं होता है । सो अब इस गाथा. युगल में यह दर्शाया गया है कि रागी पुरुष सम्यग्दृष्टि कैसे नहीं होता है।
. तथ्यप्रकाश---१-जिसके रागादि अज्ञानमय भावोंका यदि रंच भी सद्भाव हो तो वह ज्ञानमय भावके नहीं होनेसे प्रात्माको नहीं जानता है । २-जो मात्माको प्रात्मरूपसे नहीं आनता वह अनात्माको अनात्मरूपसे नहीं जान पाता। ३-किसी भी एक वस्तुका निश्चय स्वरूपसे सत्त्व और पररूपसे असत्त्व के निर्णयसे होता है। ४-जो आत्मा अनात्माको नहीं नहीं जानता है वह आस्रवादिक तत्त्वोंको भी नहीं जानता । ५-जो मोक्षमार्गके प्रयोजनभूत तत्त्वोंको नहीं जानता है वह सम्यग्दृष्टि नहीं । ६..परभावमें अनुरक्त जीव ज्ञानमयस्वरूपका ज्ञान श्रद्धान न होने सम्यग्दृष्टि नहीं है।
सिद्धान्त---१--ग्रज्ञानभय रागादि भावको आत्मस्वरूप मानने वाला अज्ञानी है। २-- अात्माको स्वद्रव्य क्षेत्र काल भावसे यात्मरूप समझने वाला ज्ञानी ही परद्रव्यको परद्रव्य रूपसे समझ सकता है।
दृष्टि-- १--अशुद्धनिश्चयनय (४७) । २--स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय व परद्रव्यादिग्राहक द्रध्याथिकन य (२८, २९) ।
प्रयोग—संसारसंकटसे छूटने के मार्गमें चलनेके लिये अपनेको औपाधिक भावोंसे विविक्त ज्ञानमात्र अनुभवनेका पौरुप करना ॥२०१०-२०२।।
यदि जानना चाहो कि प्रात्माका स्वपद कहाँ है ? सो सुनिये----[आत्मनि] मात्मामें [अपदानि] अपदरूप [द्रव्यभावान्] द्रव्य भावरूप सभी भावोंको [मुक्त्या ] छोड़कर [नियतं]