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निर्जराधिकार प्रात्मानात्मनो न जानाति स जीवाजीवो न जानाति । वस्तु जीवाजीवा न जानाति स सम्यग्दृष्टिरेव न भवति । ततो रागो ज्ञानाभावान्न भवति सम्याष्टिः। प्रासंसारा प्रतिपदममी जाण अवबोधने, हो सतायां । प्रातिपदिक-परमाणुमात्रक, अपि, खलु, रागादि, तु, यत्, न, अपि, तत्, आत्मन्, तु, सर्वागमधर, अपि, आत्मन्. अजानत्, अनात्मन्, च, अपि, तत्, अजानत् । मूलधातु दिद सत्तायां, ज्ञा अबबोधने, भू सत्तायां । पविवरण-परभाशुमित्तयं परमाणुमात्रक-प्रथमा एकवचन । पि अपि-अव्यय । हु खलु-अव्यय । रायादीणं रागादीनां--पष्ठी बहु । तु-अव्यय । विज्जदे विद्यते वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक क्रिया । जस्स यस्य-षष्ठी एक० । ण न-अव्यय । बि अपि-अव्यय । सो सः-प्रथमा एक० । जाणदि जानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । अप्पाणयं आत्मानं-द्वितीया ए.। तु-अव्यय । सम्यग्दृष्टि नहीं है।
भावार्थ--यहाँ रागीका अर्थ लेना है अज्ञानमय रागद्वेष मोहभाव वाला । अज्ञानमय मायने मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धीसे हुए रामादिक । मिथ्यात्वके अभाव में चारित्रमोहके उदयका जो राग है वह प्रज्ञानमय राग नहीं हैं । क्योंकि ज्ञानीके उस रागके साथ राग नहीं है, ज्ञानी तो कर्मोदयसे जो राग हुमा है उसको मेटना चाहता है । ज्ञानीके चाहे वह अवती भी है उसके जो रागका लेशमात्र भी नहीं कहा सो रागमें राग लेशमात्र भी नहीं यह जानना । ज्ञानीके प्रशुभ राग तो अत्यन्त गौण है, परन्तु शुभ राग होता है उस शुभ रागको अच्छा समझ लेशमात्र भी उस रागसे राग करे तो सर्वशास्त्र भी पढ़ लिये हों, मुनि भी हो, व्यवहारचारित्र भी पाले तो भी ऐसा समझना चाहिये कि इसने अपने प्रात्माका परमार्थस्वरूप नहीं जाना, कर्मोदयजनितभावको ही अच्छा समझा है उसीसे अपना मोक्ष होना मान रक्खा है। ऐसे मानने वाला जीव अज्ञानी ही है । इसने स्व व परके परमार्थरूपको नहीं जाना सो मोव अजीव पदार्थका भी परमार्थरूप नहीं जाना और जिसने जीव अजीवको ही नहीं जाना यह कैसा सम्यग्दृष्टि ?
____ अब इसी अर्थको कलशमें कहते हैं-~-~आ संसारा इत्यादि । प्रर्थ-हे अन्ध प्राणियो ! प्रनादि संसारसे ये रागी जीव प्रतिपदमें नित्य मत्त होकर जिस पदमें सोये हुए हैं उस पदको तुम अपद समझो, अपद समझो (यहाँ दो बार अपद कहने से प्रति करुणाभाव सूचित होता है) जहाँ चैतन्यधातु शुद्ध है शुद्ध है अपने स्वाभाविक रसके समूहसे स्थायीभावपनेको प्राप्त होता है यह तुम्हारा पद है । सो इस तरफ प्राप्रो इस तरफ आमो यहां निवास करो । भावार्थ-ये प्राणी अनादि कालसे विकारभावको ही अपना हितकारी मानकर उनको ही अपना स्वभाव मानकर उन्हीं में रम रहे हैं। उनको श्री गुरु करुणा करके संबोधन कर रहे हैं कि हे अंधे प्राणियो! तुम जिस पदमें सोये हो, रम रहे हो वह तुम्हारा पद नहीं है तुम्हारा पद तो