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________________ निर्जराधिकार किनाम तत्पदं ? इत्याह श्रादमि दव्वभाव अपदे मोत्तण गिण्ह तह णियदं । थिरमेगमिमं भावं उवलभंतं सहावेण ॥२०॥ निजमें अपद द्रव्यमा-बोंको तजि भाव ग्रहण कर अपना । नियत एक यह शाश्वत, स्वभाबसे लभ्यमान तथा ॥२०३।। आत्मनि द्रव्यभावानपदानि मृवस्था गृहाण तथा नियतं । स्थिरभेकमिमं भावमुपत्र भ्वमानं स्वभावेन । इह खलु भगवत्यात्मनि बहूनां द्रव्यभावानां मध्ये ये किल अतत्स्वभाषेनोपलभ्यमाना:, अनियतत्वावस्थाः, अनेके, क्षरिशकाः, व्यभिचारिणो भावाः ते सर्वेऽपि स्त्रयमस्थायित्वेन स्थानः रकानं भदिशुमशचकादमदाः । यस्तु तत्स्वभावेनोलभ्यमानो नियतत्वावस्थः, एक: नित्यः, अन्यभिचारी भावः, स एक एव स्वयं स्थायित्वेन स्थातुः स्थानं भवितुं शक्यत्वात् पदभूतः । ततः सर्वानेवास्थाषिभावान् मुक्त्वा स्यायिभावभूतं, परमार्थरसतया स्वदमानं ज्ञान नामसंज्ञ... अत्त, दव्वभाव, अपद, तह, णियदे, थिर, एन, इम, भाव, उबलभंत, महान ! धातु संज - मुंच त्यागे. गिगह ग्रहणे. उब-लभ प्राप्तौ । प्रातिपदिक -आत्मन्, द्रव्य भाव, अपद, तथा, नियत, निश्चित [स्थिरं] स्थिर [एकं] एक [तथा] व [स्वभावेन ] स्वभावसे ही उपलभ्यमाने] ग्रहण किये जाने वाले [इमं इस प्रत्यक्ष अनुभवगोचर [भावं] चैतन्यमात्र भावको हे भव्य ! तू [गृहारए] ग्रहण कर । वहीं तेरा पद है । तात्पर्य--प्रोपाधिक आकार विकारोंसे विमुख होकर अपने स्थिर नियत एक चैतन्यस्वभावको ग्रहण करो। ____टोकार्थ-वास्तव में इस भगवान् अात्मामें जो द्रव्यभावरूप बहुत भावोंमें से प्रात्माचे स्वभावसे रहित रूपसे उपलभ्यमान, अनिश्चित अवस्थारूप, अनेक, क्षणिक व्यभिचारी भाव हैं, वे सभी स्वयं अस्थायी होनेसे टहरने वाले प्रात्माके ठहरनेका स्थान होने के लिये अशक्य होनेके कारण अपदस्वरूप हैं और जो भाव अात्मस्वभावसे ग्रहणमं प्राने वाला, निश्चित अवस्थारूप एक, नित्य अव्यभिचारी है ऐसा एक चतन्यमात्र ज्ञान भाव स्वयं स्थायी भावस्वरूप होने के कारण स्थित होने वाले प्रात्माके ठहरनेका स्थान होने से पदभूत हैं । इस कारण सभी अस्थायी भावों को छोड़कर स्थायीभूत परमार्थरसरूपसे स्वादमें प्राता हुअा यह शान ही एक प्रास्वादन करने योग्य है । भावार्थ--पूर्व प्रकरणमें जो वर्णादिक गुणस्थानांत भाव कहे थे वे सभी ग्रात्मामें अनि यत, अनेक, क्षणिक, व्यभिचारी भाव हैं वे प्रात्माके पद नहीं हैं । किन्तु यह जो स्वसंवे
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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