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________________ ३६४ समयसार मेकमेवेदं स्वाद्यं । एकमेव हि तत्स्वाद्यं विषदामपदं पदं। अपदान्येव भासते पदान्यन्यानि यत्पुर: ।। १३६।। एक्ज्ञायकभावनिर्भरमहास्वाद समासादयन स्वाद द्वंद्वमयं विधातुमसहः स्वा स्थिर, एक, इदम्, भाव, उपलभ्यमान, स्वभाव । मूलधातु-मुच्ल मोक्षरणे ग्रह उपादाने, डुलभष प्राप्तौ । पदविवरण-आदम्हि आत्मनि-सप्तमी एकवचन । दबभावे द्रव्यभावान-द्वितीया बहुवचन । अपदे अपदनस्वरूप ज्ञान है वह नियत है, एक है, नित्य है, अव्यभिचारी है, स्थाय भाव है । अतः वह ज्ञानमात्र भाव आत्माका पद है सो ज्ञानियोंके यही एक स्वाद लेने योग्य है । अब इस अर्थको कलशमें कहते हैं—एकमेव इत्यादि । अर्थ-वही एक पद प्रास्वादने योग्य है जो आपदावोंका पद नहीं है अर्थात् जिस पदमें कोई भी प्रापदा नहीं रह सकती तथा जिसके मागे अन्य सभी पद प्रपद प्रतिभासित होते हैं। भावार्थ---एक ज्ञान ही प्रात्मा का परमार्थ पद है इसमें कुछ भी प्रापदा नहीं है इसके आगे अन्य सभी पद आपदा स्वरूप (माकुलतामय) होनेसे अपद हैं। अब बताते हैं कि ज्ञानी मातमा ज्ञान का अनुभव लिए सरन करता है-एकज्ञायक इत्यादि । अर्थ- एक शायकमात्र भावसे भरे हुए ज्ञानके महास्वादको लेता हुअा यह प्रात्माके अनुभव (प्रास्वाद) के प्रभावसे विवश प्रात्मा विशेषके उदयको गौण करता हुआ सामान्यको ग्रहण करता हुआ समस्त ज्ञानको एकत्वको प्राप्त कराता है । भावार्थ-एकस्वरूप सहज ज्ञानके रसीले स्वादके सामने अन्य रस फीके हैं । ज्ञानके विशेष ज्ञेयके विकल्पसे होते हैं । सो जब ज्ञानसामान्यका स्वाद लिया जाता है याने अनुभव किया जाता है तब सब ज्ञानके भेद गौण हो जाते हैं एक ज्ञान ही स्वयं ज्ञेयरूप हो जाता है। प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि अज्ञानमय राग वाला जीव ज्ञानमय निज प्रात्मपदको न जाननेसे सम्यग्दृष्टि नहीं है । अब इस गाथामें उस ज्ञानमात्र निज पदको बताया गया है व उसको ग्रहण करनेका उपदेश किया गया है। तथ्यप्रकाश--१- प्रात्मामें गुण व द्रव्यव्यञ्जन पर्यायें हैं व अनेकों गुणव्यञ्जन पर्याय है । २- जो भाव प्रात्माके स्वभावरूप नहीं, किन्तु प्रौपाधिक हैं वे अस्थायी भाव हैं । ३-जो भाव प्रात्मामें नियत नहीं, किन्तु अनियत दशावोंरूप हैं वे अस्थायी भाव हैं | ४- जो अनेक रूप होते रहते हैं, एकरूप नहीं ये भाव अस्थायी भाव हैं। ५.-- जो भाव क्षणविनश्वर हैं शाश्वत नहीं वे भाव अस्थायी भाव हैं । ६-- जो कभी हुए, कभी न हुए याने व्यभिचारी हैं अव्यभिचारी नहीं याने शाश्वत सहज नहीं वे सब प्रस्थायी भाव हैं । ७-अस्थायी भाव प्रात्मा मेंबाश्वत स्थान न पानेके कारण अपद है । ८- स्वभावरूप, नियत, एक, शाश्वत, अव्यभि.
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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