SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूर्व रंग ४५ भूतार्थी तथात्मनो वृद्धिहान पर्यायणानुभूयमानतायामनियतत्वं भूतार्शमपि नित्यव्यवस्थितमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थ । यथा च कांचनस्य स्निग्धपीतगुरुत्वादिपर्यायणानुभूयमानतायां विशेषत्वं भूतार्थमपि प्रत्यस्तमितसमस्तविशेष कांचनस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायाम. भूतार्थी तथात्मनो ज्ञानदर्शनादिपर्यायेणानुभूयमानतायां विशेषत्वं भूतार्थमपि प्रत्यस्तमितसमस्त. विशेषमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायमभूतार्थ । यथा चापां सप्ताचि:प्रत्ययोऽण्यसमाहितत्वकर्ताकारक, पश्यति-लट् वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन, आत्मान-द्वितीया एक० कर्मकारक, अबद्धरपुष्टं(अंश) घटते भी हैं, बढ़ते भी हैं, यह वस्तुका स्वभाव है, इसलिए वह नित्य नियत एकरूप नहीं दीखता । (४) वह दर्शन ज्ञान प्रादि अनेक गुणोंसे विशेषरूप दीखता है। (५) वह कर्म के निमित्तसे उत्पन्न हुए मोह रागद्वेषादिक परिणामसहित सुख दुःख स्वरूप दीखता है । यह सब प्रशुद्ध द्रव्यार्थिकरूप व्यवहारनयका विषय है। उस दृष्टि से देखा जाय तो यह सब ही सत्यार्थ है, परन्तु प्रात्माका एकस्वभाव नयसे ग्रहण नहीं होता और एकस्वभावके जाने बिना यथार्थ प्रात्माको कोई कैसे जान सके, इस कारण दूसरे नयको--इसके प्रतिपक्षी शुद्ध द्रव्याथिकको ग्रहण कर एक असाधारण ज्ञायकमात्र आत्माका भाव लेकर शुद्धनयकी दृष्टि से सब परद्रव्योंसे भिन्न, सब पर्यायोंमें एकाकार, हानि-वृद्धिसे रहित, विशेषोंसे रहित, नैमित्तिक भावोंसे रहित देखा जाय तब सभी (पाँच) भावों द्वारा अनेकरूपता है वह अभूतार्थ है, प्रसत्यार्थ है । यहाँ ऐसा जानना कि वस्तुका स्वरूप जो अनन्तधर्मात्मक है, वह स्याद्वादसे यथार्थ सिद्ध होता है । प्रात्मा भी अनन्तधर्मा है, उसके कितने ही धर्म तो स्वाभाविक हैं और कितने ही पुद्गलके संयोगसे उत्पन्न हैं । जो कर्मके संयोगसे होते हैं, उनसे तो आत्माके संसारकी प्रवृत्ति होती है, और तत्सम्बन्धी सुख-दुःखादिक होते हैं उनको यह भोगता है । इस प्रात्माके अनादि अज्ञानसे पर्यायबुद्धि है, अनादि अनन्त एक प्रात्माका ज्ञान नहीं है । उसको बतलाने वाला सर्वज्ञका नागम है । उसमें शुद्ध द्रव्याथिकन प्रसे यह बतलाया गया है कि अात्माका एक असाधारण चैतन्यभाव है-जो कि प्रखंड है, नित्य है, अनादिनिधन है । इसीके जाननेसे पर्यायबुद्धिका पक्षपात मिट जाता है । परद्रव्योंसे तथा उनके भावोंसे अथवा उनके निमित्तसे हुए अपने विभावोंसे पृथक् अपने प्रात्माको जानकर इसका अनुभव करें, तब परद्रव्यके भाव. स्वरूप परिणमन नहीं होता । उस समय कर्म नहीं बंध से तथा संसारसे निवृत्ति हो जाती है । इसलिए पर्यायाथिकरूप व्यवहारनयको गौण करके अभूतार्थ (प्रसत्यार्थ) कहकर, शुद्धनिश्चयनयको सत्यार्थ कहकर पालम्बन दिया है । वस्तुस्वरूपकी प्राप्ति होने के बाद उसका भी प्राल. बन नहीं रहता । इस कथनसे ऐसा नहीं समझ लेना कि शुद्धनयको जो सत्यार्थ कहा है, इस
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy