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समयसार पर्यायणानुभूयमानतायां संयुक्तत्वं भूतार्थमप्येकांततः शीतमास्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थ तथात्मनः कर्मप्रत्ययमोहसमाहितत्यपर्यायणानुभूयमानतायां संयुक्तत्वं भूतार्थमप्येकांततः स्वयंबोधबीजस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम् ॥१४॥ द्वितीया एकवचन कर्मविशेषण, अनन्यक-द्वि० ए० कर्मविशेषण, नियतं-द्वि० ए० कर्मविशेषण, अविशेषकारण अशुद्धनय सर्वथा असत्यार्थ ही है। ऐसा माननेसे वे एकांत मत वाले जो कि संसारकोसर्वथा अवस्तु मानते हैं उनका सर्वथा एकान्त पक्ष प्रा जायगा, तब मिथ्यात्व प्रा जायगा - और उस समय इस शुद्धनयका भी पालम्बन उन एकांतियोंकी तरह मिथ्यादर्शन हो जायगा। इसलिए सभी नयोंका कथंचित् रीतिसे श्रद्धान करनेपर सम्यग्दर्शन होता है। इस प्रकार स्या. द्वादको समझकर जिनमतका सेवन करना; मुख्य गोण कथन सुनकर सर्वथा एकांत पक्ष न पकड़ लेना । इसी प्रकार इस गाथासूत्रका व्याख्यान टीकाकारने किया है कि प्रात्मा व्यवहार. नयको दृष्टिमें जो बद्धस्पृष्ट प्रादि रूप दिखता है, यह इस दृष्टि में तो सत्यार्थ ही है, परंतु शुद्धनयकी दृष्टि में बद्धस्पृष्ट आदि रूप असत्यार्थ है । इस कथन में स्याद्वाद बतलाया गया है, उसे जानना । जो ये नय हैं वे श्रुतज्ञान प्रमाणके अंश हैं । वह श्रुतशान वस्तुको परोक्ष बतलाता है सो ये नय भी परोक्ष ही बतलाते हैं : शुद्ध दाहालका विषय बद्धस्पृष्टत्वादि पांच भावोंसे रहित प्रात्मा चैतन्यशक्तिमात्र है, वह शक्ति तो परोक्ष प्रात्मामें है ही और उसकी घ्यक्तियां कर्मसंयोगसे मति, श्रुत प्रादि ज्ञानरूप हैं, वे कथंचित् अनुभवगोचर हैं सो वे प्रत्यक्ष रूप भी कहलाती हैं तथा सम्पूर्ण ज्ञान केवलज्ञान यद्यपि छमस्यके (अल्पज्ञानीके) प्रत्यक्ष नहीं है तो भी यह शुद्धनय प्रात्माके केवलज्ञानरूपको परोक्ष बतलाता है। जब तक जीव इस नय को नहीं जानता तब तक प्रात्माके पूर्ण रूपका ज्ञान श्रद्धान नहीं होता । इसलिए श्रीगुरुने इस शुद्धनयको प्रकट कर दिखलाया है कि बद्धस्पृष्टत्व प्रादि पांच भाथोंसे रहित पूर्ण ज्ञानघनस्वभाव पात्माको जानकर श्रद्धान करना, पर्यायबुद्धि नहीं करना ।
यहाँ इस शुद्धनयको मुख्य करके कलशरूप काव्य "न हि विवधति" इत्यादि कहते हैं। प्रर्थ - टीकाकार यहाँ उपदेश करते हैं कि दुम उस सम्यकस्वभावका अनुभव करो जिसमें ये बद्धस्पृष्ट आदि भार प्रकटपनेसे इस स्वभावके ऊपर तरते हैं तो भी प्रतिष्ठा नहीं पाते । क्योंकि द्रव्यस्वभाव नित्य है, एकरूप है और ये भाव प्रनित्य हैं, अनेकरूप हैं । पर्याय द्रव्यस्वभाव में प्रवेश नहीं करता है, वह ऊपर हो रहता है। यह शुद्धस्वभाव सब अवस्थामोंमें प्रकाशमान है । ऐसे स्वभावका मोहरहित होकर अनुभव करो, क्योंकि मोहकर्मके उदयसे उत्पन्न मिथ्यास्वरूप प्रशान जब तक रहता है तब तक यह अनुभव यथार्थ नहीं होता । अतः