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________________ पूर्व रंग न हि विदधति बद्धस्पृष्टभावादयोऽमो स्फुटमुपरि तरंतोप्येत्य यत्र प्रतिष्ठा । अनुभवतु तमेव द्योतमानं समंतात् जगदपगतमोहीभूय सम्यकस्वभाव ।।११।। भूतं भांतमभूतमेव रभसान्निभिद्य बंध सुधी. यद्युतः किल कोप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात् । प्रात्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तीयमास्ते न वं नित्य कर्मकलंक पंपिकालो देवः (वयं ६५६. ।।१२।। द्वितीया एक कर्मविशेषण, असंयुक्त -द्वि० ए० कर्मविशेषण, तं-द्वि० ए०, शुद्धनयं--द्वितीया एक०, विजाशुद्धनयके विषयरूप प्रात्माका अनुभव करो, यह उपदेश है। अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य "भूतं" इत्यादि कहते हैं। प्रर्श--यदि कोई सुबुद्धि सम्यग्दृष्टि भूत (पहले हुग्रा), भांत (वर्तमान) और प्रभूत (पागामी होने वाला) ऐसे तीनों कालके कर्मोके बंधको अपने प्रात्मासे तत्काल पृथक् करके तथा उस कर्मके उदय के निमित्तसे उत्पन्न हुए मिथ्यात्वरूप प्रज्ञानको अपने बल (पुरुषार्थ) से पृथक कर अन्तरंगमें अभ्यास करे तो देखता है कि यह प्रात्मा, अपने अनुभवसे हो जानने योग्य प्रगट महिमामय, व्यक्त, अनुभवगोचर, निश्चल, शाश्वत (नित्य) और कर्म-कलंक कर्दमसे रहित स्वयं स्तुति करने योग्य देव विराजमान हो रहा है । भावार्थ-शुद्धन यकी दृष्टि से देखा जाय तो सब कर्मों से रहित चैतन्यमात्र देव अविनाशी प्रात्मा अन्तरंगमें स्वयं विराजमान है । पर्यायबुद्धि बहिरात्मा इसको बाहर ढूंढ़ता है सो बड़ा प्रशान है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व यह कहा जा रहा था कि शुद्धनय अथवा भूतार्थनयसे मात्मतत्वका ज्ञान सम्यवत्वको सम्पादित करता है सो यहाँ उसी शुद्धनयका विवरण दिया गया है । तथ्यनकाश---(१) प्रात्मस्वभाव न किसी पदार्थसे बंधा हुप्रा है और न किसी पदार्थ से छुमा हुमा है । (२) प्रात्मस्वभाव नर नारक तिर्यच आदि किसी भी प्राकार पर्यायरूप नहीं है । (३) प्रात्मस्वभाव नित्य चैतन्यरूप व्यवस्थित है। (४) अात्मस्वभाव गुणभेदसे भी परे प्रखण्ड चिन्मात्र है.। (५) प्रात्मस्वभाव प्रविकार है। सिद्धान्त--(१) पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे पृथक् सत् होने के कारण प्रात्मा वस्तुत: प्रबद्ध व अस्पृष्ट है । (२) प्रात्मा परमभावस्वरूप होनेसे स्वतः निराकार है। (३) प्रात्मा शाश्वत चिन्मात्र है । (४) प्रात्म। गुणपर्यायस्वभावसे अभिन्न है। (५) प्रात्मा स्वयं विकार रूप परिणमनेका निमित्त न हो सकनेसे स्वरूपतः अविकार है ।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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