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________________ ४४ समयसार तायामभूतार्थं । तथात्मनोनादिबद्धस्पृष्टत्वययिणानुमततायत्वं भूतार्थमप्येकांततः पुद्गलास्पृश्यमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थं । यथा च मृत्तिकायाः करककरीरकर्क - कपालादिपर्यायेणानुभूयमानतायामन्यत्वं भूतार्थमपि सर्वतोप्यस्खलंतमेकं मृत्तिकास्वभावमुपे - स्यानुभूयमानतायामभूतार्थं । तथात्मनो नारकादिपर्यायेणानुभूयमानतायामन्यत्वं भूतार्थमपि सर्वतोप्यस्खलनमेकमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थं । यथा च वारिधेर्वृद्धिहानिपर्यायेखानुभूयमानतायामनियतत्वं भूतार्थमपि नित्यव्यवस्थितं वारिधिस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामअसंयुक्त तत्, शुद्धाय । मूलधातु-दृशिर् अवलोकने, णीञ् प्रापणे । पदविवरण- यः प्रथमा एकवचन के भेदरूप नहीं होते हुए एक मिट्टी के स्वभावका अनुभव करनेपर यह पर्यायभेद प्रभूतार्थ है, . असत्यार्थ है । उसी तरह आत्माको नारक आदि पर्यायभेदोंके रूपमें अनुभवनेपर पर्यायोंका अन्यत्व सत्यार्थ है, तो भी सब पर्यायभेदोंमें ग्रचल एक चैतन्याकार आत्मस्वभाव को लेकर अनुभव करनेवर अन्यत्व अभूतार्थ है, असत्यार्थ है । जैसे समुद्रको वृद्धि हानि श्रवस्थारूप अनुभव करनेसे नियतता भूतार्थ है तो भो नित्य स्थिर समुद्रस्वभावको अनुभवनेपर अनियतता प्रभूतार्थ है, असत्यार्थ है । उसी तरह ग्रात्माका वृद्धि हानि पर्यायभेदोंरूप अनुभव करनेपर श्रनियतता भूतार्थ है, सत्यार्थ है तो भी नित्य व्यवस्थित निश्चल ग्रात्मा के स्वभावका अनुभव करनेपर अनियतता अभूतार्थं है, असत्यार्थ है । जैसे सुवर्णका चिकना, भारी और पीला आदि गुणरूप भेदोंसे अनुभव करनेपर विशेषता सत्यार्थ है तो भी जिसमें सब विशेष विलय हो गये हैं, ऐसे सुवर्णस्वभावको लेकर अनुभव करनेसे विशेषता प्रभूतार्थ है, असत्यार्थ है । उसी तरह श्रात्माका ज्ञान, दर्शन यादि गुणरूप भेदोंसे अनुभव करनेपर विशेषता भूतार्थ है, सत्यार्थ है तो भी जिसमें सब विशेष विलय हो गये हैं, ऐसे चैतन्यमात्र प्रात्मस्वभाव को लेकर अनुभव करनेपर विशेषता प्रभूतार्थ है, असत्यार्थ है । जैसे श्रग्निके निमित्तसे उत्पन्न उष्णता से मिले हुए जलकी तप्तरूप अवस्थाका अनुभव करनेपर जलमें उष्णताको संयुक्तता भूतार्थ है, सत्यार्थ है तो भी वास्तव में शीतल स्वभावको लेकर जलका अनुभव करनेपर उष्णताकी संयुक्तता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है । उसी तरह कर्म निमित्तक मोहसंयुक्ततारूप अवस्था द्वारा श्रात्मा का अनुभव करनेपर संयुक्तता भूतार्थ है, सत्यार्थ है तो भी वास्तव में आत्मबोधका बीजरूप चैतन्यस्वभाव को लेकर अनुभव करनेपर मोहसंयुक्तता प्रभूतार्थ है, असत्यार्थ है । भावार्थ - श्रात्मा पाँच तरहसे अनेक रूप दीखता है - ( १ ) श्रनादिकालसे कर्म पुगलके सम्बन्धसे बंधा हुआ व कर्मपुदगल से स्पर्श वाला दीखता है । ( २ ) वह कर्मके निमित्तसे हुए नर नारकादिपर्यायोंमें भिन्न-भिन्न स्वरूप दीखता है । ( ३ ) शक्तिके प्रविभागप्रतिच्छेद
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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