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________________ समयसार नोकमव जीव: शरीरादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । विश्वमपि पुण्यपापरूपेणाक्रामन् कर्मविपाक एव जीवः शुभाशुभभावादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । सातासातरूपेणाभित्र्याप्तसमस्ततीव्रमंदत्वगुणाभ्यां भिद्यमानः कर्मानुभव एव जीवः द्वितीया एक० । अजानन्त:--प्रथमा बहु । मूढाः-प्र० बहु० । तु-अव्यय । परात्मवादिनः-प्रथमा बहु । केचित्-अध्यय तथा अन्तः प्रथमा बहुबचन । जीवं-द्वि० ए० । अध्यवसान-द्वितीया ए० । कर्म-द्वि० ए०। च-अव्यय । तथा-अव्यय । प्ररूपयन्ति-वर्तमान लट अन्य पुरुष बहवचन चरादिगण किया। अपरे-प्रथमा बहु० । अध्यबसानेषु-सप्तमी बहु०। तीब्रमन्दानुभागगं-दि० ए०1 जीव-द्वि० ए०। मन्यते--वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । तथा अव्यय । अपरे-प्रथमा बहु । नोकर्म-द्वि० ए० । जीवः-प्रथमा एक० । रागद्वेषसे मलिन अध्यवसान अर्थात् प्राशयरूप विभाव परिणाम ही जीव है, क्योंकि जैसे कालिमासे अलग अंगार दिखाई नहीं देता है वैसे अध्यवसानसे अलग अन्य कोई जीव दीखता नहीं । कोई कहते हैं कि पूर्व पश्चात् अनादिसे लेकर और भागामी अनंतकाल तक अवयव रूप एक भ्रमण क्रियारूपसे कोटा करता हना नई ही जगह है, सबोंकि इससे भिन्न कुछ अन्य जीव देखने में नहीं पाता । कोई कहते हैं कि तीन मंद अनुभवसे भेदरूप हुया और जिसका अंत दूर है ऐसे रागरूप रससे भरी जो अध्यवसानको संतान (परिपाटी) है वही जीव है, क्योंकि इससे अन्य कोई जुदा जीव देखने में वही पाता। कोई कहते हैं कि नवीन और पुरानी अवस्था इत्यादि भावसे प्रवर्तमान जो नोकर्म वही जीव है, क्योंकि इस शरीरसे अन्य भिन्न कुछ जीव देखनेमें नहीं आता। कोई ऐसा कहते हैं कि समस्त लोकको पुण्यपाप रूपसे व्याप्त कर्मका विपाक ही जीव है, क्योंकि शुभाशुभभावसे अन्य भिन्न कोई जीव देखने में नहीं पाता । कोई कहते हैं कि साता असातारूपसे व्याप्त समस्त तीन-मंदत्व गुग्गोंसे भेदरूप हुमा जो कर्मका अनुभव बही जीव है क्योंकि सुख-दुःखसे अन्य भिन्न कोई जीव देखने में नहीं आता कोई कहते हैं कि श्रीखण्डकी तरह दो रूप मिला जो प्रात्मा और कर्म ये दोनों मिले हो जीव हैं क्योंकि समस्त रूपसे कमसे भिन्न कोई जीव देखने में नहीं पाता है। कोई कहते हैं कि प्रयोजनभूत क्रियामें समर्थ कर्मसंयोग ही जोब है, क्योंकि कर्मके संयोगसे भिन्न कोई जीव देखने में नहीं प्राता जैसे कि पाठ काठके टुकड़े मिलकर खाट हुई, तब अर्थक्रिया में समर्थ हुई सो पाठ काठके संयोगसे अलग कोई खाट नहीं इसी तरह यहां भी जानना ऐसा मानते हैं । इस प्रकार पाठ प्रकार तो ये कहे और अन्य भी अनेक प्रकार परको जो आत्मा कहते हैं वे दुबुद्धि हैं, उनको परमार्थ से जानने वाले उन्हें सत्यार्थवादी नहीं कहते । भावार्थ-जीव अजीव दोनों ही अनादिकालसे एक क्षेत्रावगाह संयोगरूप मिल रहे हैं और अनादिसे ही पुद्गलके संयोगसे जीवकी विकार सहित अनेक अवस्थाएं हो रही हैं । यदि परमार्थदृष्टि से देखा जाय तब जीव तो अपने चैतन्य आदि भावको नहीं छोड़ता और
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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