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जीवाजीवाधिकार अनाद्यनंतपूर्वापरीभूत ावयकसंसरणक्रियारूपेण क्रीडतक्रमव जीवः कर्मणोतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । तीनमंदानुभवभिद्यमानदुरंतरागरसनिर्भराध्यवसानसंतान एवं जीवस्तहोरिक्तस्यान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित । नवपुराणावस्थादिभावेन प्रवर्तमानं जीव, अध्यवसान, कर्मन्, च, तथा, अपर, अध्यवसान, तीनन्दानुभागग, जीव, तथा, अपर, नोकर्मन्, च, अपि, जीव, इति, कर्मन्, उदय, जीव, अपर, कर्मानुभाग, तीव्रत्वमंदत्वगुण, यत्. तत्, जीव, जीवकर्मोभय, द्वि, अपि, खलु, केचित्, जीव, अपर, संयोग. तु, कर्मन्, जीव एवं विध, बहुविध, पर, आत्मन्, दुर्मेधस्, तत, न. परमार्थवादिन्. निश्चयवादिन, निदिष्ट । मूलधातु--वद संदेशवचने चुरादिगण, अधि-अव वित्र बंधने, अनु-भाज पृथक्कर्मणि चुरादिगणे, इषु इच्छायां, मन ज्ञाने, वद व्यक्तायां वाचि । पदविवरण --आत्मानं
आगे जोव अजीवका एकरूपक स्वांगका वर्णन करते हैं:- [प्रात्मानं अजानंतः] प्रात्माको न जानते हुए [परत्मवादिनः] परको आत्मा कहने वाले [केचित मूढाः तु] कोई मोही अज्ञानी तो [अध्यवसानं] अध्यवसानको तथा च] और कोई अज्ञानी [कर्म] कर्मको [जीवं प्ररूपयंति] जीव कहते हैं। [अपरे] अन्य कोई अध्यवसानेषु] प्रध्यवसानोंमें ] तीवमंदानुभागगं] तीव्रमंद अनुभागगतको [जीवं मन्यते] जीव मानते हैं। ] तथा [ और [परे] अन्य कोई [नोकर्म अपि च] नोकर्मको [जीव इति] जीव मानते हैं [अपरे] अन्य कोई [कर्मरण उदयं] कर्मके उदयको [जीवं] जीव मानते हैं, कोई [कर्मानुभाग] कर्मके अनुभागको ] यः] जो कि [तीवत्वमंदत्वगुणाभ्या] तीनमंद रूप गुणोंसे भेदको प्राप्त होता [सः] बह [जीयः भवति] जीव है [इच्छंति] ऐसा इष्ट करते हैं [केचित् ] कोई [जीवकर्मोमयं] जीव और कर्म [ अपि] दोनों मिले हुएको [खलु] ही [जीवं इच्छति] जोव मानते हैं [तु] और [अपरे] अन्य कोई [कमरणां संयोगेन] कर्मोंके संयोगसे हो [जीवं इच्छति] जीव मानते हैं । [एवंविधाः] इस प्रकारके तथा [बहुविधाः] अन्य भी बहुत प्रकारके [दुर्मेधसः] दुर्बुद्धि मिथ्यादृष्टि [परं] परको [प्रात्मानं] अात्मा [वदंति] कहते हैं [ते न परमार्थवादिनः] वे परमार्थ याने (सत्यार्थ कहनेवाले नहीं हैं ऐसा [निश्चयवादिभिः] निश्चय तत्वके वादियोंने [निर्दिष्टाः] कहा है।
तात्पर्य- अज्ञानी जीव अध्यवसान, भावकर्म, अध्यवसानसंतति, शरोर, शुभाशुभभाव, सुख-दुःखादि कर्मविपाक, प्रात्मकर्मोभय व कर्मसंयोगको जीव कहते हैं, किन्तु परमार्थतः ये कोई भी जीव नहीं हैं।
टीकार्थ---इस जगतमें प्रात्माका असाधारण लक्षण न जाननेके कारण असमर्थ होनेसे प्रत्यन्त विसूढ़ होते हुए परमार्थभूत आत्माको न जानने वाले बहुतेरे अज्ञानी जन बहुत प्रकार से परको ही प्रात्मा इस प्रकार कहते हैं । कोई तो ऐसा कहते हैं कि स्वाभाविक स्वयमेव हुये