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जीवाजोवाधिकार सुखदुःखातिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । मज्जितावदुभयात्मकत्वादात्मकर्मोभयमेव जीवः कातय॑तः कर्मणोतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । प्रक्रिया समर्थःकर्मसंयोग एव जीवः कर्मसंयोगातखट्वाया इवाष्टकाष्ठसंयोगादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुइति-अव्यय । कर्मण:-षष्ठी एकवचन । उदयं-द्वि० ए० । जीव-द्वि० एफ० । अपरे-प्रथमा बहु । कर्मानुभाम-द्वितीया बहु० । इच्छन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु । तीव्रत्वमंदत्वगुणाभ्यां-तृतीया द्विवचन । य:-प्रथमा एक० । स:-प्रथमा एकवचन । भवति-वर्तमान लट अन्य पुरुष एक०। जीव:जीवकर्मोभयं-प्रथमा एक० । द्वे-द्वितीया द्वि: । अपि-अय्यय । खलु-अ० । केचित्-अ० अंतः प्रथमा बहु० । जीचं-द्वितीया एक०। इच्छन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० क्रिया । अपरे-प्रथमा बहुः । संयोगेनतृतीया एक० । कर्मणां-षष्ठी बहु । जीवं-द्वितीया एक० । एवंविधा:-प्रथमा ब० । बहुविधा:-प्रथमा पुद्गल अपने मूर्तिक जड़त्व प्रादिको नहीं छोड़ता। लेकिन जो परमार्थको नहीं जानते हैं, वे संयोगजन्य भांवोंको ही जीव कहते हैं। परमार्थसे जीवका स्वरूप पुद्गलसे भिन्न सर्वज्ञको धोखता है तथा सर्वज्ञको परंपराके प्रागमसे जाना जाता है। जिनके मतमें सर्वज्ञ नहीं माना '' गया है, वे ही अपनी बुद्धिसे अनेक कल्पना करके कहते हैं।
प्रसंगविवरण--सर्ववर्णनीयस्वरूप तथा अधिकारस्वरूप १३वों गाथामें जीवाजीव, पुण्य, प,प, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, बंध व मोक्षकी चर्चा की गई थी । अतः पूर्वरंगके बाद इनका वर्णन आवश्यक है, सो उनमेंसे प्रथम क्रमप्राप्त जीव व अजीवका इस अधिकारमें वर्णन किया जा रहा है, इसी कारण इस अधिकारका नाम जीवाजोवाधिकार है।
तथ्यप्रकाश-१-वेदान्तादिसम्मत जैसा नैसगिक रागद्वेष कलुषित अध्यवसान जीव नहीं है । २-मीमांसकादिसम्मत जैसा संसरणक्रियाविलसित कर्म जीव नहीं है । ३-सांख्यादिसम्मत जैसा अध्यवसानसंतान जीव नहीं है । ४-बैशेषिकादिसम्मत जैसा नवीन नवीन दशामें प्रवर्तमान शरीर ही जीव हो ऐसा नहीं है । ५-बौद्धादिसम्मत जैसा क्षणिक शुभ अशुभभाव ही जोव हो, ऐसा नहीं है । ६-योगादिसम्मत जसा सुख दुःख मात्र ही जीव हो ऐसा नहीं है । ७- नैयायिकादिसम्मत जैसा प्रात्मकर्मोभय जीव हो ऐसा नहीं है । ८-चार्वाकादि सम्मत जैसा कर्मादिके संयोगमात्र जीव हो ऐसा नहीं है ।।
सिद्धान्त–१, परद्रव्यमें जीवत्वका आरोप करमा उपचार है। २ – नैमित्तिक भावों में जीवत्वका प्रारोप करना भी उपचार है।
दृष्टि-५-द्रव्ये द्रध्योपचारक व्यवहार (१०६), संश्लिष्टविजात्युपचरित असद्भूत व्यवहार (१२५) । २- उपाषिज उपचरित स्वभावव्यवहार (१०३)।
प्रयोग---परद्रव्योंसे व परभावोंसे उपयोग हटा करके अपने में पूर्णविश्राम कर स्वयं