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________________ समयसार पलभ्यमानत्वादिति केचित् एवमेव प्रकारा इतरेपि बहुप्रकाराः परमात्मेति व्यपदिशति दुर्मेधसः किंतु न ते परमार्थवादिभिः परमार्थवादिनः इति निदिश्यन्ते ।।३६-४०-४१-४२-४३॥ ब० । परं-हिए | आत्मान-द्विका । वन्ति-वर्तमान अन्य० ब० । दुर्मेधसः-प्रथमा ब० । ते-प्रथमा ब० । न-अव्यय । परमार्थवादिनः-प्रथमा ब० । निश्चयवादिनः-तृ० ब० । निर्दिष्टा:-प्रथमा बहुवचन कृदन्त क्रिया क्तान्त ।।३६-४०-४१-४२-४३।।। अपनेको अनुभवना चाहिये ।।३६-४०-४१-४२.४३।। ऐसा कहने वाले सत्यार्थवादी नहीं हैं, सो क्यो नहीं ? उसका उत्तर कहते हैं[एते] ये पूर्व कहे हुए अध्यवसान प्रादिक [सर्व भावाः] सभी भाव [पुद्गलद्रव्यपरिणाम . निष्पन्नाः] पुद्गलद्रव्य के परिणमनसे उत्पन्न हुए हैं ऐसा [केवलिजिनैः] केवलो सर्वजिनदेवने [भरिणताः] कहा है मो [ते जीवाः] वे जीव हैं [इति कथं उच्यते] ऐसा कैसे कह सकते हैं ? अर्थात् नहीं कह सकते ।। तात्पर्य- पूर्वोक्त गावामें अज्ञानीसम्मत जीव कुछ तो उपादानतया पौद्बालिक हैं, कुछ निमित्ततया पौगलिक हैं। टीकार्थ--चुंकि ये अध्यवसानादिक भाव सब पदार्थोंको साक्षात् देखने वाले भगवान वीतराग सर्वज्ञ अरहतदेवके द्वारा "पुद्गलद्रव्यपरिणामजन्य" कहे गये प्रतः चैतन्यभावसे शुन्य पुद्गलद्रव्यसे भिन्न रूपसे कहे गये चैतन्यस्वभावमय जीव द्रव्य होनेको सम.र्थ नहीं हैं इस कारण निश्चयसे प्रागम, युक्ति और स्वानुभव इन तीनों द्वारा बाधित होनेसे जो इ7 अध्यकसानादिकों को जीव कहते हैं वे परमार्थवादी याने सत्यार्थवादी नहीं है। ये सजीव नहीं है, ऐसा जो सर्वजका वचन है वह तो पागम है और यह स्वानुभवभित युक्ति है, क्या, सो कहते हैं- स्वयमेव उत्पन्न हुमा रागद्वेषसे मलिन अध्यवसान निश्चयतः जीव ना ही है, क्योंकि जैसे सुवर्ण कालिमासे पृथक् है, उसी प्रकार चित्स्वभाव रूप ऐसे अध्यवसानसे भिन्न जीव भेद विज्ञानियों को प्रतिभासित होता है, वे स्वयं प्रत्यक्ष चैतन्य भावको पृथक् अनुभव करते हैं ।।१।। अनाद्यनंत पूर्वापरीभूत एक संसरणक्रियारूप क्रीडा करता हुमा कर्म है वह जीव नहीं है क्योंकि कर्मसे पृथक् अन्य चतन्यस्वभावरूप जीव भेदविज्ञानियोंको प्राप्त है , वे स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं ॥२॥ तीवमंद अनुभव से भेदरूप हुआ दुरंत राग-रससे भरी अध्यवसानको संतान भी जीव नहीं है, क्योंकि उस संतानसे अन्य पृथक् चैतन्यस्वरूप ज व भेदविज्ञानियोंको स्वयमेव प्राप्त है, वे स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं ।।३।। नई पुरानी प्रवस्त्रादिक भेदसे प्रवृत्त हमा जो नोकर्म है वह भो जीव नहीं है, क्योंकि शरीरसे अन्य पृथक् चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदविज्ञानियोंको स्वयंमेव प्राप्त है, वे स्वयं पाप प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं ॥४॥ समस्त जगतको
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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