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________________ जौवाजीवाधिकार १० एए सब्वे भावा पुग्गलदब्बपरिणामणिप्पण्णा । केवलिजिणेहिं भणिया कह ते जीवो ति बुच्चंति ॥४४॥ ऐसे नाना दुर्मति, परतत्वोंको हि प्रात्मा कहते । वे न परमार्थवादी, ऐसा तत्वज्ञ दर्शाते ॥४४।। एते स भावाः पुद्गलद्रव्यपरिणामनिष्पन्ना: । केवलिजिनर्भणिताः कथं ते जीव इत्युच्यते ।।४।। यतः एतेऽध्यवसानादयः समस्ता एव भावा भगवद्भिविश्वसाक्षिभिरहद्भिः पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वेन प्रज्ञप्ताः संतश्चंतन्यशून्यात्पुद्गलद्रव्यादतिरिक्तत्वेन प्रज्ञाप्यमानं चैतन्यस्वभावं जीवद्रव्यं भवितुं नोत्सहते ततो न खल्वांगमयुक्तिस्वानुभव धितपक्षत्वात् तदात्मवादिनः परमार्थवादिनः एतदेव सर्वज्ञवचनं तावदागमः । इयं तु स्वानुभवभिता युक्तिः न खलु नैसर्गिकरागद्वेषकल्माषितमध्यवसाने जीवस्तथाविधाध्यवसानातकातस्बरस्येव श्यामिकायाः अतिरिक्तत्वे नामसंश-एत, सब्द, भाव, पुग्गलदव्वपरिणामणिप्पण, केवलिजिण, भणिय, कह, त, जीव इत्ति। पातुसंश-भण कथने, वच्च व्यक्तायां वाचि । प्रकृतिशम्द-एतत्, सर्ब, भाव, पुदगलद्रव्यपरिणामनिष्पन्न, केवलिजिन, भणित, कथं, तत्, जीव, इति । मूलधातु-जि जये, भण व्यक्तायां वाचि, वच परिभाषणे। पुण्य-पापरूपसे व्यापता कर्मका विपाक भी जीव नहीं है। क्योंकि शुभाशुभभावसे अन्य पृथक् चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदविज्ञानियोंको स्वयमेव प्राप्त है, वे स्वयं आप प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं ॥५॥ साता प्रसातो रूपसे व्याप्त समस्त तीव्रमंदतारूप गुणसे भेदरूप हुआ कर्मका अनुभव भी जीव नहीं है; क्योंकि सुख-दुःखसे पृथक् अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीवको भेदविज्ञानियोंको स्वयं प्राप्ति होती है, वे स्वयं पाप प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं ॥६॥ श्रीखंडकी तरह दो स्वरूप मिले प्रात्मा और कर्म दोनों ही जीव नहीं हैं, क्योंकि कर्मसे पूर्णरूपतः भिन्न अन्य चैतन्यस्वरूप जीव भेदशानियोंको स्वयं प्राप्त है, वे स्वयं प्रत्यक्ष भाप अनुभव करते हैं ॥७॥ अर्थक्रियामें समर्थ कर्मका संयोग भी जीव नहीं है, क्योंकि 'जैसे पाठ काठके टुकड़ोंरूप खाटपर सोने वाला पुरुष अन्य है। उसी प्रकार कर्मसंयोगसे भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीवकी भेदशानियोंको स्वयं प्राप्ति है, वे स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं ।८। भावार्थ-चैतन्यस्वभावरूप जीव सब परभावोंसे भिन्न भेदज्ञानियोंके अनुभवमोचर है, इस कारण अज्ञानी जिस प्रकार मानते हैं, उस प्रकार नहीं है। अब यहाँपर पुद्गलसे भिन्न जो मात्माकी उपलब्धि उसको भन्यथा ग्रहण करने वाला पाने पुद्गलको ही मात्मा जानने वाला जो पुरुष है, उसको समभावसे ही उपदेश करना चाहिए,
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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