________________
२७ से ८
या सं०
विषय
६ अजनीका प्रश्न है कि यदि जीव और शरीर एक नहीं है तो वीर और आयामों
की स्तुति मिथ्या हो जायगी ।
उत्तर:- व्यवहारनय जीव और शरीरको एक कहता है किन्तु निश्य से ये दोनों पदार्थ नहीं है, तो भी व्यवहारनय से छद्मस्य शान्तहर मुद्राको देखकर शरीर के आपसे भी स्तुति करता है।
एक
आत्मा तो शरीरका मान अधिष्ठाता है वहाँ निश्चयमय शरीर के स्तवन से आत्मा का स्तवन नहीं बनता, उसका उदाहरण पूर्वक वर्णन प्रभुवर्धन
ज्ञान होनेपर एक जिज्ञासा कि परद्रव्यका प्रत्यास्थान अर्थात् न्याय क्या है ? उसका समाधान कि अपने अतिरिक्त सर्व पदार्थ पर है ऐसा जानकर इतर ज्ञान होना है। उसका दुष्टापूर्वक वर्णन
२९ से ३०
३१ मे २३ ३४ से ३५
२६३८ अनुभूति होने पर भेदज्ञान व निजके अभेदज्ञान का प्रकार
२३ से ४३ जीव अनी दोनों
४६
५० से ५५ ५६ से ६०
४४ से ४८ जीवका अन्यया स्वरूप कल्पना करने वालोंको प्रतिबोधन कि अध्यवसानादि भाव पुद्गलम है, जीव नहीं हैं। इनको व्यवहारये जीब कहा गया है, इसका अन्त
६१ मे ७० ७१ मे २
७३
६१ मे ६८ वर्णादिक भावका जीवके साथ तादात्म्य मानने का निषेध
૩૪
२ जीवाजीवाधिकारः
रूप होकर एक देखने जाते हैं, उनमें अज्ञानी जीवों की अध्यवसानादि भावरूपसे जीवको अन्यथा कल्पनाओं का पांच गाथाओंमें वर्णन व असमें अज्ञानोको शंकाचोंका संक्षिप्त समाधान
१७६ से ७६
प्रारम्भ पृष्ठ स
८३ ५४
में दृष्टपूर्वक वर्णन
परमार्थ जीवका सहज स्वरूप
वर्षको आदि लेकर युजस्थान एक नाव ये जीव नहीं है इसका विर वर्षा
भाव जीव के हैं ऐसा व्यवहारतम कहता है, निश्चयनय नहीं कहता उसका दृष्टातपूर्वक वर्णन
३ कर्तृकर्माधिकार
जब तक अज्ञानी जीव क्रोधादिकमें बर्तता है, तब तक उसके धन्ध होता रहता है । आव और आत्मस्वरूपका भेदज्ञान होनेपर बंध नहीं होता। आश्रमे निवृत्त होने विधान
ज्ञान होता और मास्रत्रोंसे निवृत्ति होना एक ही कालमें है इसका कथन ज्ञानस्वरुण हुए आत्माका परिचायक चिन्ह
आघव और आत्माका भेदजान होनेपर आत्मज्ञानी होता है, और तब क फर्मभावका आशय भी नहीं रहता
जी और निमित-मिनिक भाव होनेपर भी कतु कर्म भाव नहीं है। निश्चय आत्मा अपना ही कर्ता भोक्या है वुद्गल कर्मकर्ता-भोक्ता नहीं है। व्यवहारमा पुद्गलकर्मस्वका और पुद्गलकर्मभोवतृत्व का म
( ४६ }
६८
७०
७३
०६
८३
८८
EX
१०१
ܒ ܕ ܕ
११४
१२०
१२८
१४३
१५५
१५८
१६१
१९९
१७२
१७५