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॥ समयसार का विषय-क्रम ॥
गाया सं.
विषय
प्रारम्भ पृष्ठ सं.
१-पूर्वरंग
१ मङ्गलाचरणमें स्वभावानुरूप पूर्णविकसित सिद्ध भगवंतोंको नमस्कार तथा अन्धकार
की प्रतिज्ञा और ग्रन्थकी प्रामाणिकताका हेतु २ सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र परिणत जीम स्वसमय होता है मिथ्यादर्शन-जान चारित्र
परिणत जीव पुद्गामा चित्त है.मेरे सार : पसा है। ३ एकत्वनिश्चयको प्राप्त जीव लोकमें सर्वत्र सुन्दर है किन्तु एकत्ब होनेपर
उदयवश होने वाली बंधकी कथा विसम्वाद झगड़ा करने वाली है। जीको कामभोग विषयक बन्धकथा तो सुलभ है, किन्तु आस्माका एकत्व दुर्लभहै। ग्रन्धकार आचार्यका एकत्व-विभक्त आत्माको निजवैभवसे दिखलानेका निर्देशन तथा दूसरोंको अपने अनुभवसे परीक्षा करके ग्रहण करनेकी प्रेरणा
जीव प्रमत्त-अप्रमत्त दोनों दशाओंसे पृथक् ज्ञायक भाबमान है। ७ ज्ञानीके दर्शन-ज्ञान-चारित व्यवहारसे कहे जाते हैं, निश्चयसे शानी तो एक शुद्ध
ज्ञायक ही है। उसके दर्शन शान-बारिश्रखण्ड परमार्थत नहीं है। व्यवहारके बिना परमार्थका उपदेश अशक्य है व्यवहारनय परमार्थका प्रति
पादक है। १. श्रुतकेबलीका निश्चय व व्यवहारसे लक्षण
व्यवहारनय अभूतार्य है और शुसनम भूतार्थ है। भूतार्थका आश्रय करनेवाला
जीब सम्म्यदृष्टि होता है। १२ शुद्ध परमभावके दर्शी जीवोंको शुद्धनय ही प्रयोजनवान है किन्तु अपरम भाव में स्थित
जीवोंके लिए व्यवहारनयका उपदेश करना चाहिए।
निश्चममयसे जाने हुए जीवादि नवतत्त्व सम्यक्त्व है, अर्थात् सम्यक्त्व के संपादक हैं १४ निश्चयनय आत्माको अवस्पष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयक्त
निरखता है १५ शनयके विषयभूत आत्माको निरखने वाला सर्वजिनशासनका द्रष्टा है १६ से १५ साधु पुरुषोंको सदा सम्यग्दर्शन-जान-पारिवका सेवन करना चाहिए, निश्चयनय
से ये तीनों एक आत्मा ही है, उसका दृष्टान्तपूर्वक कथन १६ सुद्धनयके विषयभूत आश्माको अब तक न जाने, तब तक वह जीव अज्ञानी है २० से २२ जो परद्रव्यमें आत्माका विकल्प करता है, वह असानी है। अपने आत्माको अपना
आत्मा मानने वाला शानी है २३ से २५ अज्ञानीको उपदेश है यह कि जद और चेतन धोनों सर्वथा भिन्न द्रव्य हैं वे एक
नहीं हो सकते