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________________ १७१: सर्वगतनय (जैसे ज्ञानमुखेन सर्वज्ञं यवर्ती आत्मा का बोधन) १७२. असर तनय (जैसे स्वात्मप्रदेशवर्ती आत्मा का बोधन) १७३. शून्यनय (जैसे सर्वपरभावशून्य केवल आत्माका बोधन) १७४ अशूभनय (जैसे सर्व याकाराकान्त आत्मा का बोधन) १७५. ज्ञान या तनय (जैसे जोयाकारपरिणत ज्ञान के एकपनेका बोधन) १७६. ज्ञान यह तनय (जैसे जयाकारकालम्बित आत्मा के अपनेका दर्शन ) १७७. नियनिय (जैसे शाश्वत ज्ञानस्वभावमें नियत आत्माका बोधन) १७८. अनियनिय जैसे औवारिक विभावरूप अनियतभावान आत्माका बोधन) १७६. स्वभावनय (जैसे संस्कारका आवश्यकतासे जन्य परिपूर्ण आत्माका बोधन) १८० अस्वभावनय (जैसे संस्कारवशवर्ती अल्प आत्मा का बोधन) १८१. कालनय (जैसे अपने समयपर विपच्यमान भावमुक्त आत्माका शोधन) १८२. अकाल (जैसे असमयवच्यमान भावयुक्त आत्माका बोधन) १८३. पुरुषकारनय (जैसे पुरुषार्थ की प्रधानता से साध्यसिद्धि होने का बोधन ) १८४. वेजन (जैसे कर्मोदयको प्रधानता साध्यसिद्धि होने का बोधन) १८५ ईश्वरनय (जैसे कर्मविपाकानसे परतन्त्रमा अनुभव का परिचय ) १८६ अनश्वरनय (जैसे अपनेही स्वरूप से प्रकट स्वतंत्रविलास के अनुभवका बांधन) १८७ (जैसे गुण आत्मा के अभिभू उपयोगी गुणवाहिका बोधन) १८८ अगुणिनय (जैसे सर्वत्र उपयोगवान आत्मा की साक्षिताका परिचय) १८६. कन (जैसे अपने को कर्मविपाकप्रतिफलन का कर्ता समझना ) १६० अनय (जीसे कर्मविपाकप्रतिफलनको अस्वभाव जान मात्र ज्ञाता होने का परिचय ) १६१. भोक्तृन (जैसे विभावानुरागी आत्मा के सुख दुःखादि भोगने का परिचय) १८२. अमोन (जैसे विवेकी आत्मा के सुख दुःखादिपने को साक्षिता का बोधन) १९३. किमानय (जैसे चारित्रप्रधान आत्मा के ज्ञाननिधिको साध्यताको सिद्धिका बोधन) १९४. ज्ञानमय (जैसे विवेक बुद्धिकी प्रधानता से आत्मा के साध्यकी सिद्धि का बोधन) १६५. व्ययहारनय (जैसे जीवको कर्मवन्ध व कर्ममोक्ष दो में रहनेवाला विश्वाना) १९६. निश्चयनय (जैसे बन्ध, मोल किसी भी स्थिति मात्र शुद्ध आत्माको दिखाना) १६३. अशुद्धनय (जैसे औपाधिक स्थितियों में जीवका सोपाधिस्वभाव दौखना ) १६८. शुद्ध (जैसे केवल आत्मव्यका निरुपाधिस्वभाव दीखना ) १६६. ऊध्ये सामान्यमय (जैसे कालिकपर्यायों में मात्र एक आत्मद्रश्य दीखना २००. ऊर्ध्वदिशेषन (जैसे एक आत्मा के त्रैकालिक नाना पर्यायोंका दीखना) २०१. निमित्तत्वनिमितदृष्टि (जैसे नदीनकर्मास के निमित्तभूत द्रव्यप्रत्यय के निमित्व के निमित्त रागादिभावका परि०) २०२. साध्ययनय (जैमं पुण्य पाप कर्मको कर्मत्वदृष्टिसे एकरूप देखना आदि) २०३. वैलक्षण्य (जैसे प्रकृति आदिके भेद से पुण्य पाप कर्म में अन्तर जानना ● इति नयचक्र प्रकाश समाप्त ( ४४ ) मनोहर वर्णी सहजानन्
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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