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समयसार ल्प्य पृथुकः शुद्धजु मूत्रेरितरात्मा म्युज्झित एष हारवदहो निस्सूत्रमुक्तेक्षिभिः ॥२०८।। कतुर्वेद. यितश्च युक्तिवशतो भेदोऽस्त्वभेदोपि वा, कर्ता वेदयिता च मा भवतु वा वस्त्वेव संचित्यतां । प्रोता सूत्र इवात्मनोह निपुणतु न शक्या क्वचित्, चिच्चितामणिमालिकेयमभितोप्येकी चका. तृतीया यहु० । दु ण एव वा व तु न एव वा वा-अध्यय । पज्जयहि पर्याय:-तृतीया बह । विणस्सए विनश्यति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । जीवो जीव:-प्रथमा एकवचन । जम्हा यस्मात् तहा तस्मात्-पंचमी एक० । कुब्वदि करोति-वर्तमान लद अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । सो सः-प्र० ए ! अण्णो अन्य:-प्र० ए० । एयंतो एकान्त:-प्रथमा एक० । वेददि वेदयते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया। ग्रहण करते हैं उनको हारकी प्राप्ति नहीं होती । उसी प्रकार जो आत्माके एक नित्य चतन्य भावको ग्रहण नहीं करते तथा समय समय बर्तनापरिणाम रूप उपयोगको प्रवृत्तिको देख उस को सदा नित्य मान कालकी उपाधिसे अशुद्धपना मानकर ऐसा जानते हैं कि यदि नित्य माना जाय तो कालको उपाधि लगनेसे प्रात्माके अशुद्धाना आता है तब अतिव्याप्ति दूषण लगता है, इस दोषके भयसे ऋजुसूत्रनयका विषय शुद्ध वर्तमान समयमात्र क्षणिकपना उस मात्र मान
आत्माको छोड़ देते हैं। भावार्थ-आत्माको समस्तपने शुद्ध माननेके इच्छुक क्षणिकवादीने विधारा कि यदि प्रात्माको नित्य माना जाय तो नित्यमें कालकी अपेक्षा पाती है. इसलिये उपाधि लग जायगी तब बड़ी अशुद्धता प्रायेगी, तब प्रतिव्याप्ति दोष लगेगा। इस भयसे शुद्ध ऋजुसूत्रनयका विषय जो वर्तमान समय है उतना क्षणिक हो प्रात्माको माना । तब जो आत्मा नित्यानित्यरूप द्रव्यपर्यायरूप था उसका उसके ग्रहण नहीं हुमा, केवल पर्यायमाश्रमें मात्माकी कल्पना हुई । ऐसा कल्पित प्रात्मा सत्यार्थ नहीं है।
अब फिर इसी अर्थका समर्थन काव्यमें कहते हैं---कर्तृ इत्यादि । अर्थ-कर्ताका और भोक्ताका युक्तिके वशसे भेद हो अथवा अभेद हो, अथवा कर्ता भोक्ता दोनों ही न हों, वस्तुका ही चितवन करो। जैसे चतुर पुरुषोंके द्वारा सूत्र में पाई हुई मणियोंकी माला भेदी नहीं जा सकती, वैसे ही प्रात्मामें पोई हुई चैतन्यरूप चितामगिकी माला भी किसीस नहीं भेदी जा सकती। ऐसी यह प्रात्मारूपो माला समस्तपनेसे एक हमारे प्रकाशरूप प्रकट हो । भावार्थ- पदार्थ द्रव्यपर्यायस्वरूप है उसमें विवक्षावश कर्ताभोक्तापनेका भेद भी है और भेद नहीं भी है, तथा कर्ता-भोक्ताका भेदाभेद भी क्यों करना चाहिए ? केवल शुद्ध वस्तुमात्रका उसके असाधारण धर्मके द्वारा अनुभव करना चाहिए । जैसे मणियों की मालामें सूत और मोतियोंका विवक्षासे भेद है । मालामात्र ग्रहण करने में भेदाभेद विकल्प नहीं हैं। उसी तरह प्रात्मामें चैतन्यके द्रव्यपर्याय अपेक्षा भेदाभेद है तो भी प्रात्मवस्तुमात्र अनुभव करनेपर विकल्प नहीं रहता । ऐसे निर्विकल्प प्रात्माका अनुभव हमारे प्रकाशरूप होयो।