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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार स्त्येव नः ॥२०६।। व्यावहारिकदृशंव केवलं कर्तृ कम च विभिन्न मिष्यते । निश्चयेन यदि वस्तु चित्यते कर्तृ कर्म च सदैकमिष्यते ॥२१०।। ।। ३४५.३४८ ॥ एयता एकान:-प्रथमा एकवचन ! जो य:-प्र०प० । कुणइ करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक क्रिया । जस्स यस्य-पप्ठी एक । एस एष:-प्रथमा एक । सिद्धंतो सिद्धान्त:-प्रथमा एक० । णादवो ज्ञानध्य:मिच्छादिट्ठी मिथ्याष्टि:-प्र० ए० । अणारिहदो अनार्हतः-प्रथमा एकवचन ।। ३.४५-३४८ ।।
अब इस कथन को नय विभागसे काव्यमें कहते हैं- व्यावहारिक इत्यादि । अर्थ-केवल ध्यवहारको दृष्टि से ही कर्ता और कर्म भिन्न-भिन्न दीखता है यदि निश्सयसे विचार किया जाय तो कर्ता और कर्म सदाकाल एक ही देखनेमें आता है । भावार्थ--व्यवहारनय तो पर्यायाश्रित है इसमें तो भेद ही दीखता है और शुद्ध निश्चयनय द्रव्याश्रित है, इसमें अभेद हो दोखता है । इसलिए व्यवहारमें तो कर्ता कर्मका भेद है और निश्चयनयमें अभेद है याने कर्ता कर्मका भेद नहीं है।
प्रसंगयिधरण-अनन्तरपूर्व गाथावोंमें सिद्ध किया गया था कि अज्ञानो पारमा अशुद्ध परिणामका कर्ता है । अब इसी विषयके स्पष्टीकरणके अर्थ इस गाथाचतष्कमें बताया गया है कि जो जीव कर्ता है वही भोक्ता है यह एकान्त मिथ्या है और अन्य जीव कर्ता है अन्य जीव भोक्ता है यह एकान्त भी मिथ्या है।
तथ्यप्रकाश-५-प्रतिसमय अगुरुलघुगुणके परिणमन होते ही रहने से जीवमें क्षणिक पना है । २- जीव का असाधारण गुण चैतन्य प्रचलित अन्वित होनेसे जीवमें नित्यपना है । ३- जीवमें क्षणिकत्व ब नित्यत्व दोनों एक साथ हैं। ४--- क्षणिकत्व व नित्यत्व होनेसे जीव किन्हीं पर्यायोंसे तो विनष्ट होता है और किन्हीं पर्यायोंसे विनष्ट नहीं होता। ५- यदि कोई यह एकान्त करे कि जो करता है वही भोगता तो वह मिथ्या है । ६- यदि कोई यह एकान्त करे कि अन्य कोई करता है अन्य कोई भोगता है तो वह मिथ्या है । --यदि जीवको कूटस्थ अपरिणामी नित्यैकान्त ऐसा एक माना जावे तो उस एकका मनुष्यादि भव ही न बना फिर करना भोगना ही नहीं बनता। ८-मनुष्यने तप किया देवने फल भोगा ऐसा अन्यतैकान्त मान कर दोनोंमें यही जीव न माना जाय तो फिर मोक्षसाधनादि सब व्यर्थ हो जायेंगे व हिंसादि पाप निरर्गल बढ़ जावेंगे। 6- वास्तविकता यह है कि पर्यायोंके क्षणिक होनेपर भी पर्यायी चैतन्यचमत्कारमय जीव शाश्वत अंतः प्रतिभासमान है । १०-निरुपाधि शुद्ध आत्माको बतानेकी धुन में कुछ दार्शनिकोंने कालोपाधि भी हटाकर क्षणिक पर्यायको ही पूर्ण द्वध्य मान कर द्रव्यका सत्त्व पहिले या बादमें कुछ भी नहीं माना है जो कि बिल्कुल असंगत है । ११