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________________ ५०५ समयसार पण्णाए वित्तवो जो दवा सो अहं तु णिच्छयो। अवसेसा जे भावा ते मज्झ परेत्ति णायव्वा ॥२६८॥ पण्णाए चित्तब्बो को शादा सो अहं तुमिच्छयो । यवसेसा जे भावा ते मज्झ परेत्ति गणादव्वा ॥२६६॥ (युग्मम् ) प्रज्ञासे यों गहना, जो द्रष्टा सो हि मैं हूं निश्चयसे । अवशिष्ट भाव मुझसे, भिन्न तथा पर पृथक् जानो ।।२६८॥ प्रज्ञासे यों गहना, जो ज्ञाता सो हि मैं हु निश्चयसे । अवशिष्ट भाव मुझसे, भिन्न तथा पर पृथक् जानो ॥२६॥ व्यो यो द्रष्टा सोऽहं त निश्चयतः । अवशेषा ये भावास्ते मम पग इति ज्ञातव्याः ।। २६८।। प्रशया हीतव्यो यो ज्ञाता सोऽहं तु निश्चयतः । अवशेषा ये भावास्ते मम परा इति ज्ञातव्या: ।। २६६11 चेतनाया दर्शनज्ञानविकमानतिक्रमणाच्चेतथितृत्वमिव द्रष्टुत्वं ज्ञातृत्वं चात्मनः स्वलक्षणमेव । ततोहं द्रष्टारमात्मानं गृह्णामि यत्किल गृह्णामि तत्पश्याम्येव, पश्यन्नेव पश्यामि, पश्यत्व पश्यामि, पश्यते एव पश्यामि, पश्यत एव पश्यामि, पश्यत्येव पश्यामि, पश्यतमेब नामसंज्ञ--. पण्णा, वित्तम्ब, ज, दट्टार, ते अम्ह, तु, णिच्छयओ, अवसेस, ज, भाव, त, अम्ह, पर, इत्ति,णादव, 'पण्णा, चित्तव्य, ज, णादार, त, अम्ह, तु, णिच्छयदो अवसेस इत्यादि । धातुसंज-गिण्ह ग्रहो' जाण अवयोधने । प्रातिपदिक - प्रज्ञा, गृहीतव्य, यत्, द्रष्टा तत् अस्मद्, तु, निश्चयतः, अवशेष, प्रान ग्रहणका अभ्यास हो चुकनेपर प्रात्माका अभेटानुभव होता है। दृष्टि–१- कारककारकिभेदक सद्भूतव्यवहार (७३) । २- शुद्धनय (४६) । प्रयोग- प्रात्माको उपयोगस्वलक्षणसे ज्ञानमात्र परखकर ज्ञानमात्र अन्तस्तत्वका निवकल्प अनुभव करना ।। २६७ ॥ अब कहते हैं कि सामान्य चेतना दर्शनज्ञानसामान्यमय है इसलिये अनुभवमें दर्शनज्ञानस्वरूप मात्माका ऐसे भी ग्रहण होता है-[प्रज्ञया गृहीतव्यः] प्रज्ञाके द्वारा इस प्रकार म्हण करना चाहिये कि [यो द्रष्टा] जो देखने वाला है [स तु] वह तो [निश्चयतः] निश्चय 1 [अहं] मैं हूं [अवशेषा ये भावाः] अवशेष जो भाव हैं [ते मम पराः] वे मुझसे पर है इति ज्ञातव्याः] ऐसा जानना चाहिये तथा [प्रज्ञया गृहीतव्यः] प्रज्ञाके द्वारा ऐसा ही ग्रहण करना चाहिये कि [यो ज्ञाता] जो जानने वाला है [स तु] वह तो [निश्चयतः] निश्चयसे [अहं] मैं हूं {अवशेषा ये भावाः] अवशेष जो भाव हैं [४] वे [मम पराः] मुझसे पर हैं [इति ज्ञातव्याः] ऐसा जानना चाहिये।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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