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________________ मोक्षाधिकार पश्यामि । अथवा न पश्यामि, न पश्यन् पश्यामि, न पश्यता पश्यामि, न पश्यते पयामि, न पश्यतः पश्यामि, न पश्यति पश्यामि, न पश्यंत पश्यामि । किंतु सर्वविशुद्धो दृङ्मात्रो भावो. स्मि । अपि च--ज्ञातारमात्मानं गृणामि यत्किल गृहामि तज्जानाम्येव, जानलेव जानामि, जानतंव जानामि, जानते एवं जानामि, जानत एव जानामि, जानत्येव जानामि, जानंतमेव जानामि । अथवा--न जानामि, न जानन जानामि, न जानता जानामि, न जानते जानामि, न जानतो जानामि, न जानति जानाभि न जानतं जानामि । किंतु सर्वविशुद्धो ज्ञप्तिमात्रो यत्, भाव, तत्. अस्मद, पर, इशि, जानन्य, जाण । मूलयात - या उपादाने, ज्ञा अवबोधने । पदविवरण . पण्णाए प्रजया-तृतीया एक. करणकारक 1 चितन्यो गृहीतयः-प्रथमा एक कृदन क्रिया । जो च -प्र० एक० । दट्टा द्रष्टा-प्रथमा एकः । सो सः-प्र० एकः । अह-प्र० To | तु-अव्यय । णिच्छवओ निदन यतः तात्पर्य-समस्त पर व परभावसे विभक्त दर्शनजानसामान्यात्मक अपनेको अनुभवना परमार्थतः आत्मद्रव्यका अनुभव है। टोकार्थ-चेतनाके दर्शन ज्ञान के भेदका उल्लंघन नही होने के कारण चेतकत्वको तरह दर्शकपना व ज्ञातापना प्रात्माका निज लक्षण हो है । अतः मैं देखने वाले प्रात्माको ग्रहण करता हूं, जो निश्चयसे ग्रहण करता हूँ सो देखता हूं, देखता हुया ही देखता हूं, देखते हुएके द्वारा ही देखता हूं, देखते हुएके लिये ही देखता हूं, देखते हुएसे ही देखता हूँ, देखते हुए में ही देखता हूं और देखते हुए को ही देखता हूं अथवा न देखता हूं, न देखता हुआ देखता हूं, न देखते हुएके द्वारा देखता है, न देखते हुएके लिये देखता हूं, न देखते हुएसे देखता हूं, न देखते हुएमें देखता हूं, न देखते हुएको देखता हूं। किन्तु मैं सर्वविशुद्ध एक दर्शनमात्र भाव हं । तथा और भी.. मैं ज्ञाता प्रात्माको ग्रहण करता हूं, जो ग्रहण करता हूं सो निश्चयसे जानता ही हूं, जानता हुआ भी जानता हुआ ही जानता हूं, जानते हुएसे ही जानता हूं, जानते हुएके लिये ही जानता हूं, जानते हुएसे ही जानता हूं, जानते हुएमें हो जानता हूं, जानते हुए को हो जानता हूं । अथवा नहीं जानता, न जानता हुअा जानता हूं, न जानते हुएके द्वारा जानता हूं, न जानते हुएके लिये जानता हूं, न जानते हुएसे जानता हूं, न जानते हुएमें जानता हूं, न जानते हुएको जानता हूँ। किन्तु सर्वविशुद्ध एक जाननक्रियामात्र भाव मैं हूं। भावार्थ- इस तरह ज्ञानपर छह कारक भेदरूप लगाकर फिर अभेदरूप करनेको कारक भेदका निषेध कर ज्ञानमात्र अपना अनुभव करना। प्रश्न-- चेतना दर्शन ज्ञान भेदको कैसे उल्लंघन नहीं करती कि जिससे मात्मा द्रा ज्ञाता हो जावे । उत्तर--वास्तव में चेतना प्रतिभापरूप है, ऐसी चेतना दोरूप
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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