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________________ मोक्षाधिकार ५०७ चेतये, चेतयमानायव चेतये, चेतयमानादेव चेतये, चेतयमाने एवं चेतये, चेतयमानमेव रेतये । अथवा न चेतये, न चेतयमानश्चेतये, न चेतयमानेन चेतये, न चेतयमानाय चेतये, न चायमानाच्चेतये, न चेतयमाने चेतये, न चेतयमानं चेतये । किंतु सर्वविशुद्धचिन्मात्रो भावोम || भित्त्वा सर्वमपि स्वलक्षणबलाभेत्तं हि यच्छवयते । चिन्मुद्रांकितनिविभागमहिमा शुद्धसिदेवा. स्म्यहं । भिद्यते यदि कारकारिण यदि वा धर्मा गुणा वा यदि । भियंतां न भिदास्ति वाचन विभौ भावे विशुद्ध चिति ॥१८॥ ॥ २६७ ।। गृहीतव्य, यत्, चेतयितृ, तत्, अस्मद्, तु, निश्चयतः, अवशेष, यत्, भाव, तत्, अस्मद्, पर, इति, शारव्य । मूलधातु-ग्रह उपादान क्रयादि,ज्ञा अवबोधने। पदविवरण-पण्णाए प्रज्ञया-तृतीया गृहीतव्यः-प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया। जो यः-प्रथमा एक ०। चेदा चेतयिता-प्र० एक० । सो सः-श्यमा एक० । अहं-प्र० एक० । तु-अव्यय । णिच्छयदो निश्चयत:-अव्यय पंचम्यर्थे । अवसेसा अवशेषा:-श्रमा बहुवचन । जे ये-प्रथमा बहु० । भादा भावा:-प्र. बहु० । ते-प्र० बहु । मझ मम-षष्ठी एक० । परा पर बसा हु । इति इति बसाय : या सातव्याः-प्रथमा बहुवचन कृदन्त क्रिया ॥ २६७ ॥ सब मुणपर्यायोंमें व्यापक ऐसे चैतन्यभावमें तो कोई भेद नहीं है । भावार्थ-इस चैतन्यभासे अन्य अपने स्वलक्षणसे भेदे गये जो कुछ भी कारकभेद धर्मभेद भोर मुणभेद हैं तो रहें. शुद्ध चैतन्यमात्रमें कुछ भी भेद नहीं है । शुद्धनयसे प्रात्माको पभेदरूप चिमात्र अनुभवना चाहिये। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि प्रात्माको प्रज्ञा द्वारा ग्रहरा करना चाहिये | अब इस गाथामें बताया है कि प्रज्ञाके द्वारा प्रात्मा किस ढंगसे ग्रहण किया जाता है । ___ तम्यप्रकाश-(१) प्रज्ञा नियत स्वलभरणका अवलम्बन करती है । (२) प्रज्ञासे जिस शुद्ध प्रात्माको विभक्त निरखा गया वह चैतन्यमात्र प्रात्मा मैं हूं, ऐसा प्रज्ञाके द्वारा सहज शुद्ध पात्मतत्वका ग्रहण किया जाता है। (३) प्रशाके द्वारा ही यह निर्णीत किया गया कि चेलनालक्षणसे शून्य रागादिबन्धन मुझ ज्ञानस्वरूप प्रात्मतत्त्वसे अत्यन्त भिन्न हैं। (४) आत्माके ग्रहणमें मैं ही मेरे द्वारा मेरे लिये मुझसे मुझमें अपनेको ग्रहण करता हूं। (५) मात्माको ग्रहण करनेका अर्थ है आत्माको चेतना। (६) मैं हो चेतता हूं। (७) मैं चेतता हुअा ही चेतता हूं। (८) मैं चेतते हुएके द्वारा ही चेतता हूं। (६) मैं चेतते हुएके लिये हो चेतता हूं। (१०) मैं चेतते हुएसे हो चेतता हूं। (११) मैं चेतते हुएमें हो चेतता हूं। (१२) मैं चेतते हुए को ही घेतता हूं । (१३) इस अभेदसंचेतन में कारकभेद न होनेसे चेतन करना भी कुछ नहीं यह तो शुद्ध घिमात्र भाव ही हूं मैं । सिद्धान्त-(१) प्रारम्भमें प्रात्माको अभिन्न कारकोंमें ग्रहण किया जाता है । (२)
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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