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________________ ६०८ -समयसार तदसन्निधाने तथा तत्सन्निधानेऽपि स्वरूपेरणेव जानीते । स्वरूपेण जानतश्चास्य वस्तुस्वभावादेव विचित्रां परिणतिमासादयंतः कमनीया कमनीया वा शब्दादयो बहिरा न मनागपि विक्रियाय कल्प्येरन् । एवमात्मा प्रदीपवत् परं प्रति उदासीनो नित्यमेवेति वस्तुस्थितिः, तथापि रसनविषय, स्पर्श, काविषय, गुण, बुद्धिविषय, द्रव्य, बुद्धिविषय, एतत्, तु, ज्ञात्वा, उपशम, न एव, मूढ, वित्तिर्ग्रहमनस्, पर, त्र, सयं, च, बुद्धि, शिवा, अप्राप्त। मूलधातु-परि णम प्रवत्वे, रुष क्लेशे दिवादि, तप प्रीतो दिवादि, भण शब्दार्थः, श्र धवणे, इण गतौ अदादि, वि निर ग्रह उपादाने, दृशिर प्रेक्षणे, घ्रा गन्धोपादाने, रस आस्वादनस्नेहयोः चुरादि, स्पुश संस्पर्शने तुदादि, शा अवबोधने, बुध अवगमने दिवादि, गम्ल गती। पदविवरण-णि दियसंथुयवयणाणि निन्दितसंस्तुतवचनानि-प्रथमा बहु० । पोग्गला पुद्गलाःप्रथमा बहु० । परिणमंति-ततेमान लद अन्य पुरुष या क्रिया ! बहुगाणि बहुकानि-प्रथमा बहु० । ताणि तो प्रात्मा जैसे उनके समीप न होनेपर जानता है वैसे ही समीप होनेपर भी जानता है। ऐसा वस्तुका स्वभाव है । तो भी प्रात्मामें रागद्वेष उत्पन्न होता है सो यह प्रज्ञान ही है । अब इसी अर्थको कलशरूप काव्यमें कहते हैं - पूर्णं इत्यादि । अर्थ-पूर्ण, एक, अच्युत शुद्ध ज्ञानको महिमा वाला ज्ञानी ज्ञेय पदार्थोंसे कुछ भी विकारको प्राप्त नहीं होता। जैसे दोपक प्रकाशने योग्य घटपटादि पदार्थोसे विकारको नहीं प्राप्त होता । तब फिर जिनको बुद्धि वस्तुको मर्यादाके ज्ञानसे रहित है, ऐसे अज्ञानी जीव अपनी स्वाभाविक उदासीनताको क्यों छोड़ते हैं और रागद्वेषमय क्यों होते हैं ? भावार्थ-ज्ञानका स्वभाव ज्ञेयको जाननेका हो है। जैसे कि दीपकका स्वभाव घटपट आदिको प्रकाश करने का है। यह वस्तुस्वभाव है। ज्ञेयको जाननेमात्रसे ज्ञानमें विकार नहीं होता। तब फिर जो शेयको जानकर भला बुरा मान रागी, द्वेषी, विकारी होना है सो यह अज्ञान है । इसपर प्राचार्यदेवने सोच किया है कि वस्तुका स्वभाव तो ऐसा है. फिर यह आत्मा प्रशानी होकर रागद्वेषरूप क्यों परिणमता है ? अपनी स्वाभाविक उदासीनता अवस्थारूप क्यों नहीं रहता ? सो यह प्राचार्यका सोच करना युक्त है । क्योंकि जब तक शुभ राग है तब तक प्राणियोंको अज्ञानसे दुःखो देख करुणा उत्पन्न होती है तब सोच भी होता है । अब अगले कथनके विषयका संकेत काव्यमें करते हैं-रागद्वेष इत्यादि । अर्थ- राग द्वेष रूप विभावसे रहित तेज वाले, नित्य ही अपने चैतन्यचमत्कारमात्र स्वभावको स्पर्श करने वाले, पूर्व किये गए समस्त कर्म और अागामी होने वाले समस्त कर्मोसे रहित तथा वर्तमान कालमें पाये हुये कर्मके उदयसे भिन्न ज्ञानीजन अतिशय अंगीकार किये गये चारित्र वैभवके बलसे ज्ञानको सम्यक् प्रकार चेतनाको अनुभव करते हैं जो ज्ञानचेतना चमकतो (जागती) चैतन्यरूप ज्योतिमयी है तथा अपने ज्ञानरूप रससे जिसने तीन लोकको सींचा है।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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