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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
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यद्रागद्वेषी तदज्ञानं ॥ पूर्णेकाच्युतशुद्धबोध महिमा बोद्धा न बोध्यादयं, यायात्कामपि विक्रियां तत इतो दीपः प्रकाश्यादिव । तद्वस्तुस्थितिबोध बंध्यधिषणा एते किमज्ञानिनो, रागद्वेषमयी
तानि द्वि० बहु० । सुणिऊण श्रुत्वा असमाप्तिकी क्रिया । रूसदि रुपयति तूसदि तुष्यति वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन दिवादि क्रिया । य न अव्यय । अहं प्रथमा एक. कर्मवाच्य कर्म । पुणो पुनः अव्यय । afrat भणितः - प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया । किंचि किचित् वि अपि कि-अव्यय । रूससि रुध्यसि वर्तमान मध्यम पुरुष एकवचन दिवादि क्रिया । अबुद्धो अबुद्ध: असुहो अशुभः सुहो शुभः सद्दी शब्द :- प्रथमा एक० । न-अव्यय । तं त्वां द्वितीया एक० । भणइ भगति वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक क्रिया । सुणसु शृणुआज्ञार्थ लोट् मध्यम पुरुष एक क्रिया । मं मां-द्वितीया एक० ति इति - अव्यय । सो सः - प्र० एक० ! च एव - अव्यय । ण न य च - अव्यय । एइ एति वर्तमान लद् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया विणिग्गहिडं विनि होतु हेत्वर्थं कृदन्त अव्यय । सोयविसयं श्रोत्रविषयं द्वितीया एक० । आगये आगत- द्वि० एक० । सदर्द शब्द द्वि० ए० रूवं रूपं प्रथमा एक० । पिच्छ पस्स पश्य आज्ञार्थी लोट् मध्यम० एक० क्रिया ।
भावार्थ --- जिनका राग द्वेष दूर हो गया और अपने चैतन्यस्वभावको जिनने अंगीकार किया तथा प्रतीत श्रनागत वर्तमान कर्मका ममत्व जिनके न रहा ऐसे ज्ञानी सब परद्रव्यसे पृथक् होकर चारित्रको अंगीकार करते हैं । उस चारित्रके बलसे कर्मचेतना और कर्मफलचेतना से पृथक् जो अपनी चैतन्यके परिणमन स्वरूप ज्ञानचेतना है उसका अनुभव करते हैं । यहाँ यह जानना कि मुमुक्षुने पहले तो कर्मचेतना और कर्मफलचेतनासे भिन्न अपनेको ज्ञानचेतना मात्र श्रागम अनुमान स्वसंवेदन प्रमाणसे जाना और उसका श्रद्धान दृढ़ किया। सो यह तो ग्रविरत, देशविरत और प्रमत्त अवस्था में भी होता है । जब अप्रमत्त यवस्था होती है अपने स्वरूपका ही ध्यान करता है उस समय ज्ञानचेतनाका जैसा श्रद्धान किया था उसमें लीन होता है तब वह श्रेणी चढ़ केवलज्ञान उत्पन्न कर साक्षात् ज्ञानचेतनारूप होता है ।
प्रसंगविवरण- प्रनन्तरपूर्व गाथा में परद्रव्यको रागादिका अनुत्पादक बताया था । इस गाथादशक में बताया है कि जब शुभ अशुभ विषयभूत परपदार्थ रागादिके उत्पादक नहीं है, फिर तू उन विषयोंको उपयोग में लेकर क्यों व्यर्थ रोष तोष करता है, क्यों नहीं तथ्य जानकर उपशमभावको प्राप्त होता है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) रागादि विषयभूत पदार्थ भिन्न सत् हैं, श्रात्मा भिन्न सत् है । (२) विषयभूत पदार्थोंका गुण, पर्याय श्रादि कुछ भी श्रात्मामें होना असम्भव है । ( ३ ) इन्द्रिय विषयभूत पदार्थ आत्मा पर जबरदस्ती नहीं करते कि तुम हमको सुनो, देखो, सूंधो, स्वादो व छु । ( ४ ) श्रात्मा भी अपने प्रदेशोंसे बाहर कहीं भी विषयोंको सुनने प्रादिके लिये जाता नहीं । ( ५ ) अज्ञानी जीव भ्रमसे ही विषयोंको इष्ट अनिष्ट समझकर वृथा रुष्ट तुष्ट होता है ।