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समयसार भवंति सहजा मचन्त्युदासीनतां ॥२२२॥ रागद्वेषविभावमुक्तमहसो नित्यं स्वभावस्पुशः पूर्वागा. मिसमस्तकर्मविकला भिन्नास्तदात्योदयात् । दुरारुढचरित्रवैभवबलाच्चंचच्चिदचिर्मयों विदन्ति स्वरसाभिषिक्तभुवनां ज्ञानस्य संचेतनां ।।२२३।। ।। ३७३-३८२ ।।
रूवं रूपं-प्रथमा एक० । गंधो गंधः-प्रथमा एक० । घाणविसयं घ्राणविषयं आगयं आगतं गंध-द्वितीया ए० । रसो रस:-प्रथमा एक० । रसय-आज्ञार्थे लोट् मध्यम० एक० किया । रसणविसमं रसणविषयं-द्वि० ए. आगयं आगतं रसं-द्वि० ए० । फासो स्पर्श:-प्रथमा एक० । फुससु स्पृश-आज्ञार्थं लोट् मध्यम० ए० । काविसयं आगयं फासं कायविषयं आगतं स्पर्श-द्वितीया एकवचन । गुणो गुण:-प्रथमा एक० । बुद्धिविसयं बुद्धिविषयं आगयं आगतं गुण--द्वि० ९क० । ददवं द्रव्य-प्र० एक० । बुद्धिविसयं आगयं दव्वं बुद्धिविषयं आगतं द्रव्य-द्वि० ए० । एयं एवं तु-अव्यय । जाणिऊण ज्ञात्वा-असमाप्तिकी किया। उदसम उपशम-वि० ए० व नैव-अव्यय । गच्छई गच्छसि--वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० किया। मूढो मूढः-प्रथमा एक० । णिग्गहमणा निर्गमना:-प्र० एक० । परस्स परस्य-षष्ठी एक० । सयं स्वयं-अव्यय । बुद्धि सिवं शिवांद्वि० ए० । अपत्तो अप्राप्त:-प्रथमा एकवचन ।। ३७३-३८२ ।। (६) अज्ञानी जीवके रोष-तोषका कारण मात्मस्वरूपका अपरिचय है ! (७) सहजशुद्धात्मतत्त्वज्ञानी अात्मा मनोज्ञ अमनोज्ञ इन्द्रियविषयोंमें रागद्वेष नहीं करता, किन्तु स्वस्थ भावसे शुद्धात्मस्वरूपका अनुभव कर सहज आनन्द पाता है । (८) परद्रव्य गुण पर्यायें भो प्रात्मापर जाननेको जबरदस्ती नहीं करते । (8) प्रात्मा अपने प्रदेशोंसे बाहर कहीं परद्रव्य गुण पर्यायों को जानने नहीं जाता । (१०) अज्ञानी व्यर्थ हो परद्रव्य गुणा पर्यायोंको इष्ट अनिष्ट मानकर रोष-तोष प्रादि विकार करता है। (११) ज्ञानी जीव सहजात्मस्वरूपके श्रद्धानके कारण बाह्य पर्थो में हर्ष विषाद नहीं करता । (१२) प्रज्ञानी जीव सहजानन्दधाम ज्ञानस्वरूप अन्तस्तत्वकी अजानकारीके कारण विषयभूत परपदार्थोसे उपयोगको हटा नहीं पाता और उपशम (शान्ति) भावको प्राप्त नहीं हो पाता । (१३) प्रात्मा तो जानता ही रहता है, अपने स्वरूपसे हो जानता रहता है। (१४) अपने स्वरूपसे जानते रहने वाले में बाह्य विषयभूत पदार्थ विक्रिया नहीं कर सकते । (१५) जाननस्वरूपमें विकार नहीं होता। (१६) अपने स्वरूपसे अनभिज्ञ जीव अजानरूप ज्ञानपरिणामसे परिणमता हुना रागद्वेषरूप बिकल्प किया करता है।
सिद्धान्त--(१) परद्रव्यका द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव प्रात्मामें होना त्रिकाल असम्भव है । (२) अज्ञानी जीव जाननमात्ररूप उदासीन भावको छोड़कर रागद्वेष करता है वह इस हो का प्रज्ञानभाव है।
दृष्टि - (१) परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याधिकनय (२६) । २- प्रशुद्धनिश्चयनय, अशुद्ध. नय (४७, १६७)।