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सर्वशुद्धज्ञानाधिकार कम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थर विसेसं । तत्तों गियत्त अपयं तु जो सो पडिक्कमणं ॥ ३८३|| कम्मं जं सुहममुहं जलिय भावपि वज्ड भविस्सं । तत्तो यित्तए जो सो पच्चक्खाणं हवह चेया ॥ ३८४॥ जं सुहमसुह मुदिरां संपडियायवित्थरविसेसं । तं दो जो चेयइ सो खलु आलोयां चेया ॥ ३८५॥ णिच्चं पच्चक्खाणं कुव्वइ णिच्च य पडिक्कमदि जो । च्विं आलोचेयर सो हु चरितं हवइ चैया ||३=६॥ शुभ शुभ विविध विस्तृत, पूर्वकृत कर्म जो हुए उनसे । स्वयंको छुड़ाता जो, वह जीव प्रतिक्रमणमय है ॥ ३८३॥ जिस भाव से भविष्यत्, शुभ व अशुभ कर्मबन्ध हो उसमें । स्वयंको छुड़ाता जो वह प्रत्यात्मानमय आत्मा ॥ ३८४॥ शुभ अशुभ विविध विस्तृत, कर्म प्रभी जो उबीरण हैं उनको । दोषरूप जो जाने, श्रात्मा आलोचनामय वह ॥ ३८५ ॥ आलोचना प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यानको नित्य करता जो । वह ग्रात्मा होता है, स्वयं स्वचेतक व चारित्री ॥ ३८६ ॥
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नामसंज्ञ----कम्म, ज, पुव्वक्य, सुहासुह, अरगेयवित्थर विसेस, तत्तो, अप्प, तु, ज, त. पडिक्कमण, कम्म, ज, सुह, असुह, ज, भाव, भविस्सं ततो ज, त, पच्चक्खाण, चेया, ज, सुह, असुह, उदिष्ण, संपि अस्यवित्थारविसेस, त दोस, ज, त, खलु, आलोयण, खलु, आलोयण, चेया, णिच्च पञ्चक्खाण,
प्रयोग - परद्रव्पका आश्रय कर स्वकीयबुद्धि दोषसे भज्ञानी रागादिरूप परिणमता है। यह तथ्य जानकर प्रज्ञादोषको याने भ्रमको छोड़कर अविकार ज्ञानस्वभावमें उपयुक्त होनेका पौरुष करना || ३७३-३८२ ।।
अतीत कर्मसे ममत्व छोड़ना प्रतिक्रमण है, आगामी ममत्व न करनेकी प्रतिज्ञा प्रत्याख्यान है, वर्तमान कर्म जो उदयमें आया है उसका ममत्व छोड़े वह आलोचना है । ऐसा चारित्रका विधान है सो ही कहते हैं:- [ पूर्वकृतं ] प्रतीतकाल में किये हुये [स्] जो [ अनेक विस्तरविशेषं] ज्ञानावरण आदि अनेक प्रकार विस्तार विशेषरूप [ शुभाशुभं ] शुभ