SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 685
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसार मखिलाज्ञानसंचेतनायाः । पूर्ण कृत्वा स्वभावं स्वरसपरिगतं ज्ञानसंचेतना स्वां सानंदं नाटयंतः दिहि, दु, संजम, सुत्त, अगपुव्वगय, धम्माधम्म, च, तहा, पव्वज्ज, बुह । धातुसंज्ञ-हव सत्तायां, जाण चेतनाको भावनासे अत्यन्त तृप्ति रहती है, और प्रागामो कालमें केवलज्ञान उपार्जन कर सब कोसे रहित मोक्ष अवस्थाकी प्राप्ति होती है। अब पुनः इसी अर्थको कलशरूप काव्यमें कहते हैं-प्रत्यंतं इत्यादि । अर्थ-ज्ञानीजन निरन्तर कर्मसे तथा कर्मके फलसे प्रत्यन्त विरतिको भाकर, और समस्त प्रमानचेतनाके नाशको स्पष्टतया नचाकर निजरससे प्राप्त स्वभावको पूर्ण करके मानन्दके साथ जैसे हो उस तरह ज्ञानचेतनाको कराते हुए अब यहाँसे कर्मके प्रभावरूप प्रात्मोक रसरूप अमृतरसको सदाकाल पीवो । भावार्थ- पहले तो तीनकाल संबंधी कर्मका कर्तृत्वरूप कर्मचेतनाके ४६ भंग रूप त्यागकी भावना की फिर १४८ कर्मप्रकृतियोंका उदयरूप कर्मफलके त्यागको भावना को । ऐसे अज्ञानचेतनाका प्रलय कराके ज्ञानचेतनामें प्रवर्तनेका पौरुष किया है । यह ज्ञानचेतना सदा दिल्प अपने स्वभावका अनुभवरूप. है । उसको ज्ञानोजन सदा भोगो। अब परद्रव्य व परभावोंसे ज्ञानको पृथक् काव्यमें दिखलाते हैं-- इतः पदार्थ इत्यादि । अर्थ----यहाँसे अब सब वस्तुनोंसे भिन्नत्वके निश्चयसे पृथक् किया गया ज्ञान पदार्थके विस्तार के साथ गुथित होनेसे याने ज्ञेयज्ञानसम्बन्धबश एकमेक जैसा दिखाई देनेसे उत्पन्न होने वाली कर्तृत्वभावरूप क्रियासे रहित एक ज्ञान क्रियामात्र मनाकुल देदीप्यमान होता हुमा ठहरता है। भावार्थ-इस सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकारमें अब तक ज्ञानको कर्तृकर्मत्वसे रहित दिखाया है अब यहाँसे ज्ञानको सर्व परतत्वोंसे निराला दिखाते हैं। __ प्रसंगदिवरण-अनन्तरपूर्व गाथाचतुष्कमें बताया गया था कि कर्म कर्मफलके प्रति. क्रमण प्रत्याख्यान अालोचनास्वरूप प्रात्मा स्वयं चारित्र है जिससे कि कर्म कर्मफल दूर होता है अब इस गाथात्रिकमें बताया है कि परमार्थ प्रतिक्रमणादिरूप झानचेतनासे च्युत होकर जो कर्मफलको अपनाता है वह दुःखमूल अष्टविधकर्मको बांधता है। तथ्यप्रकाश-१-सहज ज्ञानस्वभाव में आत्मत्व निरखना ज्ञानचेतना है । २-ज्ञानके मिवाय अन्य सभी भावोंमें इसको मैं करता हूं ऐसा निरखना कर्मचेतना है । ३-ज्ञानके सिवाय अन्य भावों में इसको मैं भोगता है ऐसा निरखना कर्मफलचेतना है । ४- कर्मचेतना कर्मफलचेतमा दोनों ही अज्ञानचेतना हैं। ५- अशानचेतना ही संसारका मूल बीज है । ६-संसारसंकदसे छुटकारा पाने के लिये अज्ञानचेतनाका विध्वंस कर देना चाहिये । ७-प्रज्ञानचेतनाका विध्वंस करनेके लिये त्रिकाल मनसे वचनसे फायसे करने कराने अनुमोदनेकी समस्त
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy