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________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार फलानि न खलु स्वत एव तृप्तः । आपातकालरमणीयमुदरम्यं निष्कर्मशर्ममयमेति दशातरं सः ॥२३२॥ अत्यन्तं भावयित्वा विरतिमविरतं कर्मणस्तत्फलाचच प्रस्पष्टं नाटयित्वा प्रलयनअचेदण, ज, णिचं, त, जीव, दु, जाणअ, णाणि, णाण, च, जापाअ, अन्वदिरित्त, मुणेयब्व, णाण, सम्माजब जीव सम्यग्दृष्टि–जानी होता है तब उसे ज्ञान बद्धान तो हुना ही है कि 'मैं शुद्धनयसे समस्त कर्म और कर्मके फलसे रहित हूं ? परन्तु पूर्वबद्ध कर्म उदयमें आनेपर उनसे होने वाले भावोंका कर्तृत्व छोड़कर, त्रिकाल सम्बन्धी ४६-४६ भंगों द्वारा कर्मचेतनाके त्यागको भावना करके तथा समस्त कर्मोका फल भोगनेके त्यागको भावना करके, एक चैतन्यस्वरूप प्रात्माको ही भोगना शेष रह जाता है। अविरत, देशविरत और प्रमम अवस्था वाले जीवके जान-श्रद्धान में निरंतर यह भावना तो है ही; और जब जीव अप्रमत्तदशाको प्राप्त करके एकाग्रचित्तसे ध्यान करे, केवल चैतन्यमान अवस्थामें उपयोग लगाये और शुद्धोपयोग रूप हो, तब निश्चयचारित्ररूप शुद्धोपयोग भावसे श्रेणी चढ़कर केवल ज्ञान प्राप्त करता है । उस समय इस भावना का फल जो कर्मचेतना और कर्मफलचेतनासे रहित साक्षात् ज्ञान चेतना रूप परिणमन है सो होता है । पश्चात् आत्मा अनन्तकाल तक ज्ञानचेतना रूप ही रहता हुप्रा परमानन्दमें मग्न रहता है। अब इसी अर्थको कलशरूप काव्यमें कहते हैं--नि:शेष इत्यादि । अर्थ---पूर्वोक्त प्रकारसे सकल कर्मोंके फलका संन्यास (त्याग) करनेसे चैतन्य लक्षण बाले प्रात्मतत्त्वको हो अतिशयतया भोगते हुए और अन्य उपयोगकी क्रिया तथा बाह्यकी क्रियामें प्रवृत्तिसे रहित बर्तने वाले अचल मुझ मात्माके यह कालकी प्रावली अनंत प्रवाहरूप बहो अर्थात् समरत काल आत्मतत्त्वके अनुभवमें व्यतीत होवे । भावार्थ-ऐसी भावना करने वाला ज्ञानी ऐसा तृप्त हुअा है कि भावना करते हुए मानो साक्षात् केवली हो हो गया हो । सो अनन्तकाल तक ऐसा हो रहना चाहता है। यह योग्य ही है; क्योंकि इसी अन्तस्तत्त्वको भावनासे आत्मा केवली होता है । केवलज्ञान उत्पन्न होनेका परमार्थ उपाय यह अन्तस्तत्वका अवलम्बन है, बाह्य व्यवहारचारित्र इसीका साधन रूप है। इस सहजारमावलम्बनके बिना व्यवहारचारित्र शुभकर्मको बांधता है, मोक्षका उपाय नहीं है। अब पुन: यही भाव काव्यमें कहते हैं-यः पूर्व इत्यादि । अर्थ-पूर्वकालमें अज्ञान भावसे किये कर्मरूप विषवृक्षके उदय प्राये हुये फलको जो स्वामी होकर नहीं भोगता और वास्तव में अपने प्रात्मस्वरूपसे ही तृप्त है, वह पुरुष वर्तमानकालमें रमणीय तथा आगामी कालमें रम्य निष्कर्म स्वाधीन सुखमयी अलौकिक दशाको प्राप्त होता है। भावार्थ-ज्ञान
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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