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समयसार नियमेन तन्मयः स्यात् न च द्रव्यांतरमयत्वे द्रव्योच्छेदापत्तेस्तन्मयोस्ति । ततो व्याप्यध्यापकभावेन न तस्य कर्तास्ति ॥६६॥ एकवचन किया। नियमेन-तृतीया एक० । तन्मय:-प्रथमा एक० । भवेत्-विधि लिड अन्य पुरुष एक० क्रिया । यस्मात्-पंचमी एकवचन हेत्वर्थे । न-अध्यय । तन्मयः-प्र० ए० । तेन-सृतीया एक० । स:-प्रथमा एक० । न-अव्यय । तेषा-षष्ठी बहु । भवति-दर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया। कर्ता-प्रथमा एकवचन |
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दोष प्राता है । (२) कोई भी द्रव्य अन्यद्रव्यमय नहीं है । (३) यदि कोई द्रव्य अन्यद्रव्यमय हो जाय तो द्रव्यका ही उच्छेद जायगा । (४) एक द्रध्यका अन्य द्रव्यके साथ व्याप्यध्यापक भाव नहीं है, इस कारण कोई भी द्रव्य अन्ध द्रव्यका कर्ता नहीं होता। .
सिद्धान्त-(१) प्रत्येक द्रव्य अपने ही परिणामरूपसे परिणमता है । (२) प्रात्मा उपादानरूपसे परद्रव्योंका कर्ता नहीं है।
दृष्टि--१-- स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यापिकनय (२८) । २- परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय (२६)।
प्रयोग–अपनेको समस्त परसे भिन्न अतन्मय निहारकर अपने ज्ञानस्वरूपमें ही उपयोग रखनेका पौरुष करना ।।६।।
अब कहते हैं कि प्रात्मा व्याप्य-व्यापक भावसे तो परका कर्ता है ही नहीं, और निमित्तनैमित्तिक भावसे भी पता नहीं है.-[जीयः] जीव [घटं] घड़ेको [न करोति] नहीं करता [एय] और [पटं] पटको भी [न] नहीं करता [शेषकारिण] शेष [द्रव्यारिण] द्रव्यों को भी (नेव) नहीं करता (योगोपयोगी च) किन्तु जीवके योग और उपयोग दोनों (उत्पादको) घटादिक के उत्पन्नकरने वाले निमित्त हैं (सयोः) सो उन दोनोंका याने योग और उपयोगका यह जीव (कर्ता) कर्ता (भवति) है।
तात्पर्य—जीव घट-पटादिक करनेका निमित्त भी नहीं है, किन्तु जीवका योग व उपयोग घटादिकके होनेका निमित्त हो सकता है।
टीकार्य-वास्तवमें घटादिक तथा क्रोधादिक परद्रव्यस्वरूप जो कर्म हैं उनको यह प्रात्मा व्याप्यव्यापकभावसे नहीं करता । क्योंकि यदि ऐसे करे तो उनसे तन्मयताका प्रसंग मा जायगा । तथा यह प्रात्मा घट-पटादिको निमित्तनैमित्तिकभावसे भी नहीं करता, क्योंकि ऐसे करे तो सदा सब अवस्थानों में कर्तृत्वका प्रसंग मा जायगा । तब इन कर्मोको कोन करता है, सो कहते हैं । इस प्रारमाके अनित्य योग और उपयोग ये दोनों जो कि सब अवस्थानों में ध्यापक नहीं हैं, वे उन घटादिकके तथा क्रोधादि परद्रध्यस्वरूप कर्मोक निमित्तमात्रसे कर्ता