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________________ १५४ समयसार सकलपरद्रव्यनिमित्तक विशेष चेतन चंचलकल्लोल निरोधेने ममेव चेतयमानः स्वाज्ञानेनात्मन्युत्प्लवमानानेतान् भावानखिलानेव क्षययामीत्यात्मनि निश्चित्य चिरसंगृहीतमुक्तपोतपात्रः समुद्रावर्त्त द्दव झगित्यैवोद्वांत समस्त विकल्पोऽकल्पित मचलितममलमात्मानमालंबमानो विज्ञानघनभूतः खल्ययमात्मास्रवेभ्यो निवर्त्तते ॥ ७३ ॥ विवरण--- अहं - प्रथमा एक. कर्तृ विशेषण । शुद्धः प्रथमा एक कर्तृ विशेषण | निर्ममतः प्रथमा एक. कर्तृविशेषण । ज्ञानदर्शनसमग्रः - प्रथमा एक० । तस्मिन् सप्तमी एक० | स्थितः प्रथमा एक० कर्तृविशेषण ! तच्चित्तः प्रथमा एक० कर्तुं विशेषण । सर्वान् द्वितीया बहुवचन । क्षयं द्वितीया एक नयामि वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक क्रिया ॥७३॥ सहज ग्रविकार केवल चैतन्यानुभवमात्र है । ( ४ ) प्रत्येक श्रात्मा औपाधिक भावोंसे विविक्त सहज स्वसत्वमात्र है । ( ५ ) समस्त परद्रव्यभावोंमें की प्रवृत्ति हटाकर पारमार्थिक सहज हमें ठहरने वाला गाना आत्मा श्रस्रवोंसे अलग हो जाता है । सिद्धान्त - - ( १ ) श्रात्मा सहज प्रखण्ड चिज्ज्योतिस्वरूप है । (२) श्रात्मा सहज विज्ञानघनस्वभाव है । ( ३ ) आत्मद्रव्य सहज स्वसत्त्वमात्र है । ( ४ ) सहजशुद्धात्मभावना के प्रतापसे श्रावनिरोध हो जाता है । दृष्टि - १ - परमशुद्धनिश्चयनय (४४) । नय ( २३ ) । ३ - उत्पादव्ययगौर सत्ता ग्राहक शुद्ध सापेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय ( २४ब ) | प्रयोग — अपनेको अविकारस्वभाव चिन्मात्र केवल निरखकर अपने में मग्न होने का पोरुष करना || ७३ ॥ आगे पूछते हैं कि ज्ञान होनेका और प्रात्रवोंको निवृत्तिका समान काल कैसे है ? उसका उत्तररूप गाथा कहते हैं - [ एते ] ये प्रस्रव [ जीवनिबद्धाः ] जीवके साथ निबद्ध हैं [श्रवाः ] ध्रुव हैं [ तथा ] तथा [ श्रनित्था: ] श्रनित्य है [च] और हैं [ दुःखानि ] दुःखरूप हैं [च] श्रीर [दुःखफलाः ] दुःखफल वाले हैं जानकर ज्ञानी पुरुष [तेभ्यः ] उनसे [ निवर्तते ] अलग हो जाता है । [प्रशररणा: ] प्रशरण [ इति ज्ञात्वा ] ऐसा तात्पर्य - आस्रवोंकी प्रसारता जानकर ज्ञानी आस्रवोंसे हट जाता है । टीकार्थल -लाख और वृक्ष इन दोनोंकी तरह बध्य घातक स्वभावरूप होनेसे प्राव जीवके साथ निबद्ध हैं, सो वे अविरुद्धस्वभावपनेका अभाव होनेके कारण अर्थात् जीवगुणके घातकरूप विरुद्ध स्वभाव वाले होनेके कारण जीव हो नहीं हैं । प्रात्रव तो मृगोके वेगकी तरह बढ़ने वाले व फिर घटने वाले होनेके वे कारण श्रव हैं, किन्तु जीव चैतन्यं भावमात्र है सो २- • भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकद्रव्याधिकनय (२२) । ४ - शुद्धभावना
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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