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________________ कर्तृकर्माधिकार कथं झानास्त्रवनिवृत्त्योः नाराकालत्वमिति -- जीवणिबद्धा एए अधुव अणिच्चा तहा असरणा य । दुक्खा दुक्खफलात्ति य णादूर्ण णिवत्तए तेहिं ॥७४॥ प्रधब अनित्य प्रशरण, उपाधिभव ये विचित्र दुःखमई। दुःखफल जानि प्रास्त्रव से प्रब विनिवृत्त होता है ॥७॥ जावनिबद्धा एते अध्रुवा अनित्यास्तथा अशरणाश्च । दुःखानि दुःखफला इति च ज्ञात्वा निवर्त्तते तेभ्यः । जतुपादपवद्बध्यघातकस्वभावत्वाज्जीवनिबद्धाः खल्वास्रवाः, न पुनरविरुद्धस्वभावत्वाभावाज्जोव एव । अपस्माररयवईमानहीयमानत्वादध्र वाः खल्बास्रवाः ध्रुवश्चिन्मात्रो जोव एव । शीतदाहज्वरावेशवत् क्रमेणोज्जंभमारणत्वादनित्याः खल्वास्रवाः, नित्यो विज्ञानघनस्व. भावो जीव एव । बीजनिर्मोक्षक्षणक्षीयमाणदारुणस्मरसंस्कारवत् त्रातुमशक्यत्वादशरणाः ___नामसंज्ञ---जीवणिबद्ध, एत, अध्रुव, अणिश्च, तहा, असरण, य, दुवख, दुक्खफल, इत्ति, य, त। धातुसंज्ञ-बंध बंधने, जाण अवबोधने, नि-वत्त वर्त्तने। प्रातिपदिक-जीवनिबद्ध, एतत्, अध्रुव, अनित्य, ध्र ब है । प्रास्रव तो शीतदाहज्वरके स्वभावकी तरह कमसे उत्पन्न होते हैं इसलिये अनित्य हैं और जीव विज्ञानघन स्वभाव है इस कारण नित्य है । पास्त्रव अशरण हैं, जैसे काम सेवन में वीर्य छूटता है, उस समय अत्यंत कामका संस्कार क्षीण हो जाता है, किसीसे नहीं रोका जाता, उसी प्रकार उदयकाल पानेके बाद आस्रव झड़ जाते हैं, रोके नहीं जा सकते, इसलिये प्रशरए हैं, और जीव अपनी स्वाभाविक चित्शक्ति रूपसे आप ही रक्षारूप है, इसलिये शरणसहित है । प्रास्रव सदा ही पाकुलित स्वभावको लिये हुए हैं, इसलिये दुःखरूप हैं, और जीव सदा ही निराकुल स्वभाव रूप है, इस कारण प्रदुःखरूप है। प्रास्रव प्रागामो कालमें भाकुलताके उत्पन्न कराने वाले पुद्गल परिणाममें कारण हैं, इसलिये वे दुःखफल स्वरूप हैं और जीव समस्त ही पुद्गलपरिणामका कारण नहीं हैं इसलिये दुःख फलस्वरूप नहीं है । ऐसा मानवोंका और जीवका भेदज्ञान होनेसे जिसके कर्मका उदय शिथिल हो गया है ऐसा यह अात्मा जैसे दिशा बादलोंकी रचनाके प्रभाव होनेसे निर्मल हो जाती है उस भाँति प्रमयदि विस्तृत तथा स्वभावसे ही प्रकाशमान हुई चिच्छक्ति रूपसे जैसा जैसा विज्ञानघन स्वभाव होता है वैसा वैसा पासवोंसे निवृत्त होता जाता है तथा जैसा जैसा प्रास्त्रवोंसे निवृत्त होता जाता है वैसा वैसा विज्ञानघनस्वभाव होता जाता है । सो उतना विज्ञानघनस्वभाव होता है जितना कि प्रास्त्रवोंसे सम्यक निवृत्त होता है। तथा उतना प्रास्रवोंसे सम्यक् निवृत्त होता है, जितना कि सम्यक् विज्ञानधनस्वभाव होता है। इस प्रकार ज्ञान और प्रास्रवको
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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