________________
१५६
समयसार
स्वस्वास्रवाः, सारगाः स्वयं गुप्तः सहजचिच्छक्तिर्जीव एव । नित्यमेवा कुलस्वभावत्वाद् दुःखानि खल्वास्रवाः, अदुःखं नित्यमेवानाकुलस्वभावो जीव एव । प्रायत्यामाकुलत्वोत्पादकस्य पुद्गलपरिणामस्य हेतुत्वाद् दुःखफलाः खल्वास्रवाः अदुःखफल: सकलस्यापि पुद्गल परिणामस्याहेतुव्याज्जीव एव । इति विकल्पानंतरमेव शिथिलितकर्मविपाको विघटितघनौघघटनो दिगाभोग इव निरर्गलप्रसरः सहजविजृम्भमा चिच्छक्तितया यथा यथा विज्ञानघनस्वभावो भवति तथा तथास्रवेभ्यो निवर्तते । यथा यथास्रवेभ्यश्च निवर्तने तथा तथा विज्ञानघनस्वभावो भवतीति । तावद्विज्ञानघनस्वभावो भवति यावत्सम्यगास्रवेभ्यो निवर्तते । तावदात्रवेभ्यश्च निवर्त्तते याव तथा, अशरण, च, दुःख दुःखफल, इति, च, तत्। मूलधातु-जीव प्राणधारणे, निबन्ध बन्धने, ध्रु स्थैर्ये भ्वादि ध्रु ध्रुव गतिस्थैर्ययोः तुदादि, नि-वृतु वर्तने भ्वादि । पवबिबरण जीवनिबद्धाः प्रथमा बहुवचन । निवृत्ति के समकालता है ।
भावार्थ - आत्मस्वरूप और श्रोपाधिक श्रास्रवमें भेद जान लेनेके बाद जितना अंश जिस-जिस प्रकार आस्रवोंसे निवृत्त होता है उस उस प्रकार उतना अंश विज्ञानघनस्वभाव होता जाता है । इस ही प्रक्रियामें तो गुणस्थान ऊंचे-ऊंचे होते जाते हैं । और जब समस्त श्रावसे निवृत्त हो जाता है, तब सम्पूर्ण विज्ञानघनस्वभाव श्रात्मा होता है । इस प्रकार raast निवृत्तिका और ज्ञान के होनेका एक काल जानना चाहिये ।
प्रसंगविवरण -- श्रनन्तरपूर्व गाथामें यह संकेत दिया गया है कि श्रात्मस्वभाव अथवा श्रात्मा तथा श्रास्रव में भेदज्ञान होनेपर ज्ञानघनभूत होता हुआ ग्रात्मा प्रास्रवसे निवृत्त हो जाता है । सो जब इसी सम्बन्ध में यह जिज्ञासा हुई कि ज्ञान और प्रात्रवनिवृत्तिका काल वही एक अर्थात् समाज कैसे है, इस जिज्ञासाका समाधान इस गाथामें दिया है ।
तथ्यप्रकाश - १ - जीव में प्रतिफलित ग्रास्त्रव बध्यघातकस्वभाव होनेसे जीवनिबद्ध कहलाते हैं, किन्तु जीवका स्वभाव मोदक है, घातक नहीं । २- प्रतीव क्षणिकत्वकी (समयसमय में नष्ट होनेकी) अपेक्षा त्रत्रको प्रनव कहा गया है, किन्तु जीव शाश्वत एकस्वरूप 1 ३ - हृद्यस्थके अनुभवनकी अपेक्षा जात्या कुछ ठहरे रहनेपर भी बेगकी घटा बढ़ी होनेसे उतनी भी क्रमसे स्थिरता न होनेसे श्रास्रवको अनित्य कहा गया है, किन्तु जीवस्वभाव समान स्थिर है । ४ - कोई भी विभाव होते हो दूसरे क्षण भी अतः श्रव अशरण है, किन्तु जीव सदा स्वयं स्वयं में है, अतः शरण है । ५- क्रोधादि श्राव का स्वरूप ही दुःखरूप है, जीवका स्वरूप श्रानन्दमय है । ६- श्रास्रवसे नये कर्म बंधते जिनके उदयसे भागे भी दुःख मिलेगा अतः श्रालव दुःखफल वाला है, किन्तु जीव श्रानन्दमय है उससे सदैव आनन्द ही प्रकट होगा । ७ - जीवस्वभाव व प्रास्रव में यथार्थतया भेदविज्ञान होते ही उपयोग में कर्मरस हटता है और स्वभावका विकास होता है। - ज्ञानविकास व आस्रव
नहीं रह पाता है, नष्ट हो जाता है