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समयसार
शुभमशुभं च कर्माविशेषेशीत पुरुषं बध्नाति बंधत्वानियत मांगकालायसनिगलवत्
जीव प्राणधारणे, शुभ शोभने, डुकृत्र करणे। पदविवरण-सौवणिक-प्रथमा एकवचन । अपि-अव्यय ।। निगलं-प्रथमा एक० । बध्नाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । कालायसं-प्रथमा एकवचन । यथा-- अव्यय । पुरुष, जीवं-द्वितीया एकवचन । शुभ, अशुभं-प्रथमा एकवचन कर्तृ विशेषण । वा-अव्यय । कृतप्रथमा एकवचन कृदन्त । कर्म-प्रथमा एकवचन का कारक ।।१४६ ।। इच्छासे व्रत तप आदि करता है वह राख पानेके लिये चंदनबनको जलानेकी तरह व्रतादिक को व्यर्थ नष्ट करता है । ४- जो शुद्धात्मभावनाके साधनके लिये तपश्चरणादिक करता है वह परम्परया मोक्ष प्राप्त कर लेता है ! ५- भले ही ज्ञानी जीवको शेषभवपर्यंत पुण्यकर्म तत्काल बन्धनरूप है तो भी पुण्य व पुण्यफलमें राग न होनेसे एवं चित्स्वभाव उपास्य होनेसे वह ! मोक्ष मार्गी है।
सिद्धान्त-१-द्रव्यप्रत्यय नवकर्मास्रवके साक्षात् निमित्तभूत हैं । २-कर्मविपाकोदय । याने वही द्रव्यप्रत्यय जीवविकारका साक्षात् निमित्तभूत है।
दृष्टि-१-निमित्तदृष्टि (५३१)। २-उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिकनय (५३)।
प्रयोग--पुण्य पापके बंधनसे हटनेके लिये बन्धनरहित अविकार सहज ज्ञानस्वरूप मात्र अपनेको मनन करना चाहिये ॥१४६।।
__ अब शुभ अशुभ दोनों ही कर्मों का निषेध करते हैं -[तस्मात तु] इस कारण [कुशीलाभ्यो] उन दोनों कुशोलोंसे [रागं] प्रीति [मा कुरुत] मत करो [वा] अथवा [संसर्ग च] संबंध भी [मा] मत करो [हि] क्योंकि [कुशीलसंसर्गरागेरण] कुशीलके संसर्ग और रागसे [विनाशः स्वाधीनः] विनाश होना स्वाधीन है।
तात्पर्य-कोई कुशोलोंसे राग व संसर्ग करे तो उसका विनाश होना प्राकृतिक ही है ।
टीकार्थ-कुश्शील शुभ-अशुभ कर्मके साथ राग और संसर्ग करना दोनों ही निषिद्ध है, क्योंकि ये दोनों ही कर्मबंधके कारण हैं। जैसे कुशील, मनको रमाने वाली अथवा नहीं रमाने वाली कुट्टनी हथिनीके साथ राग और संगति करने वाले हाथोका विनाश अपने प्राप है सो राग व संसर्ग उस हाथीको नहीं करने चाहिये ।।
__ प्रसंगविवरण--अनन्तरपूर्व गाथामें बताया था कि पुण्य-पाप दोनों ही कर्मबन्धहेतु हैं । अब इस माथामें उन दोनों ही कर्मोको दूर करनेका उपदेश किया गया है।
तथ्यप्रकाश-१- शुभ (पुण्य), प्रशुभ (पाप) दोनों ही कर्म कुशील हैं । २- बंधके कारणभूत होनेसे दोनों ही कुशील कोंका राग करना व संसर्ग करना निषिद्ध किया गया है ।