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________________ पुण्यपापाधिकार ता दु कुसीले हिय रायं मा कुगाह मा व संसग्गं । साधीणो हि विणुसो कसीलसंसग्गरायेण ॥ १४७॥ इससे मत राग करो, नहिं संसर्ग दोनों कुशीलोंसे । स्वाधीन घात निश्चित कुशीलसंसर्ग अनुरतिसे ॥ १४७॥ तस्मात्तु कुशीलाभ्यां रागं मा कुरुल मा वा संसर्ग । स्वाधीनो हि विनाशः कुशील संसर्गरागेण ॥ १४७ ॥ कुशीलशुभाशुभकर्मभ्यां सह रागसंसग प्रतिषिद्धौ बंधहेतुत्वात् कुशीलमनोरमामनोरमकरे कुट्टनीरा संसर्ग ||१४|| २७५ अशोभयं कर्म प्रतिषेधयति - प्राकृतशब्द - त, दु, कुसील, राय, मा, संसग्ग, साधीण, हि, विणास, कुशीलसंसम्गराय । प्राकृतधातु - रज्ज रागे, नस्स नाशे । प्रकृतिशब्द- तत्, तु, कुशील, राग, मा, संसर्ग, मा, वा, संसर्ग, स्वाधीन, हि, विनाश, कुशील संसर्गराग । मूलधातु-शील समाधी, रन्ज रागे भ्वादि दिवादि सूत्र, बिसमें दिवादि तुदादि । पदविवरण - तस्मात् - पंचमी एकवचन । तु-अव्यय । कुशीलाभ्यां रागं-द्वितीया एकवचन 1 माअव्यय । कुरुत - आज्ञायां लोट् मध्यम पुरुष बहुवचन । वा-अव्यय । संसर्ग - द्वि० ए० । स्वाधीनः - प्रथमा एक० । विनाशः प्र० ए० कुशीलसंसर्गरागेण तृतीया एकवचन ।। १४७ ॥ सिद्धान्त --- (१) भावकर्ममें राग करनेसे याने दर्शनमोहसे जीव बेसुध होता है । (२) भावकर्म में संसर्ग करना चारित्रमोह है, इससे श्रात्मा क्षुब्ध होता है । दृष्टि-- १- कारककारकि प्रशुद्ध सद्भूतव्यवहार ( ७३ ) । २- कारककारकि शुद्ध सद्भूतव्यवहार (७३श्र ) । प्रयोग -- पुण्य-पाप दोनोंको विकार जानकर इनमें न तो हितबुद्धि रखना और न इनमें लगाव बनाना, इनसे उपेक्षा ही करना ॥ १४७॥ अब दोनों कर्म निषेधको दृष्टान्तसे दृढ़ करते हैं-- [ यथा नाम] जैसे [कोवि] कोई [ पुरुषः ] पुरुष [ कुत्सितशीलं ] खोटे स्वभाव वाले [जनं] किसी पुरुषको [विज्ञाय ] जानकर [तेन समकं ] उसके साथ [ संस] संगति [ च रागकरणं] और राग करना [वर्जयति ] छोड़ देता है [ एवं एव च ] इसी तरह [ स्वभावरताः ] स्वभाव में प्रीति रखने वाले ज्ञानो जीव [कर्मप्रकृतिशीलस्वभावं ] कर्मप्रकृतियोंके शील स्वभावको [ कुत्सितं ज्ञात्वा | निन्दनीय जानकर [ वर्जयंति ] उससे राग छोड़ देते हैं [च] और [ तत्संसगं] उसकी संगति भी ] परिहरति ] छोड़ देते हैं । तात्पर्य - बुद्धिमान पुरुष विनाशकारी पदार्थसे प्रीति श्रौर सम्बन्ध छोड देते हैं । टोकार्थ -- जैसे कोई चतुर वनका हाथ अपने बन्धन के लिये समीप माने वाली, चंचल
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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