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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार असुहं सुहं व दबंग तं भणइ वुझ मंति सो चेव । ण य एइ विणिग्गहिउँ बुद्धिविसयमागयं दध्वं ॥३८१।। एयं तु जाणिऊण उबममं व गच्छई मूढो । णिग्गहमणा परस्म य सयं च बुद्धिं मिवमपत्तो ॥३८२॥
निन्दास्तुलिकीय वचन, नानाविध परिसमे हि पुदगल हो। उसको सुनि क्यों रूपे, तुषे मुझको कहा भ्रम करि ॥३७३।। शब्द विपरिणत पुद्गल, वह तुझसे सर्वथा पृथक् है जब । तुझको कहा नहीं कुछ. तब तू बन प्रक्ष रूपे क्यों ॥३७४१ शुम अशुभ शब्द तुझको, नहि प्रेरें तुम मुझको सुन ही लो। श्रोत्रविषयगत इसको लेने . आत्मा नहीं पाता ॥३७५॥ शुभ अशुभरूप तुमको, नहिं प्रेरें तुम मुझको देखो हो । चक्षुविषयगत इसको, लेने आत्मा नहीं पाता ॥३७६॥ शुभ अशुभ गन्ध तुझको, नहि प्रेरें तुम मुझको सूंघो हो । घ्राणविषयगत इसको, लेने आत्मा नहीं पाता ॥३७७॥ शुभ व अशुभ रस तुझको, नहिं प्रेरें तुम मुझको चख ही लो। रसनविषयगत इसको, लेने आत्मा नहीं पाता ॥३७॥ शुभ अशुभ परस तुझको, नहिं प्रेरे तुम मुझको छू ही लो। काविषयगत इसको, लेने प्रात्मा नहीं पाता ॥३७६।। शुभ व अशुभ गुरण तुझको, नहि प्रेरें तुम मुझको जानो हो ।
बुद्धिविषयगत इसको, लेने आत्मा नहीं पाता ॥३८॥ त, च. एव, ण, य, सोयाबमय, आगय, सह, रूव, चक्खुविसय, आगय, रूव, गंध, घाणविसय, आगय, गंध, रस, रसविसय, रस, फास, कायविसय, फास, गुण, बुद्धिविसय, गुण, दन्य, एवं, तु, उसम, ण, एव, [रसनविषयं प्रागतं तु रसं] रसनाइन्द्रियके विषयभूत रसको [विनि होत] ग्रहण करनेके लिये [स एव] वह आत्मा भी अपने प्रदेशको छोड़ [न एति नहीं जाता। [प्रशुमः वा शुभः स्पर्शः] अशुभ व सुभ स्पर्श [त्वां इति न भरगति] तुझको ऐसा नहीं कहता कि [मां स्पृश] तू मुझको स्पर्श (छू ले) [च] और [काविषयं प्रागतं स्पर्श] स्पर्शनइन्द्रियके विषयभूत स्पर्शको विनिहीतुं] ग्रहण करनेके लिये इस एच] बह प्रात्मा भी अपने प्रदेशको छोड़