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________________ ६०६ समयसार शुभ अशुभ द्रव्य तुझको, नहि प्रेरें तुम मुझको जानो हो । बुद्धिविषयगत इसको, लेने मात्मा नहीं माता ॥३८१॥ मूढ यों जानकर भी, उपशमभावको प्राप्त नहिं होता । परनिहा रचिया स्वयं शिवा द्धि माह पाता ॥३८२॥ निदितसंस्तुतवचनानि पुद्गला; परिणमंति बहुकानि । तानि श्रुत्वा रुष्यति तुष्यति न पुनरहं भणितः ।। पुद्गलद्रश्यं शम्दत्वपरिणतं तस्य यदि गुणोऽन्यः । तस्मान्न त्वं भणित: किंचिदपि कि रुष्यस्यबुद्धः ।। अशुभः शुभो वा शब्दः न त्वां भणति शृणु मामिति स एव । नचैति विनिहीतुं श्रोत्रविषयमागतं शब्दं ।। अशुभं शुभं वा रूप न त्वां भणति पश्य मामिति स एव । न चैति विनिर्ग्रहीतु घ्राणविषयमागतं गंधं ॥ अशुभः शुभो वा रसो न त्वां भणति रसय मामिति स एव । न चैति विनिहीतु रसनविषयमागतं तु रसं ।। अशुभ: शुभो वा स्पर्शो न त्वां भणति स्पृश मामिति स एव । न चैति विनिगु होतं कायविषयमागतं तु स्पर्श ।। अशुभ: शुभो वा गुणो न त्वां भणति बुध्यस्व मामिति स एव । न पैति विनिहीतुं बुद्धिविषयमागतं तु गुणं ।। अशुभं शुभं वा द्रव्यं न त्वां भणति बुध्यस्व मामिति स एव न ति विनिगृहीतं बुद्धिविषयमागतं द्रव्यं ।। एतत् सात्वा उपशर्म नैव गच्छति मूढः । निर्गहमनाः परस्य च स्वयं च बुद्धि शिवामप्राप्तः ।। यह बहिरों घटपटादिः, देवदत्तो यज्ञदत्तमिव हस्ते गृहीत्वा 'मां प्रकाशय' इति स्व. प्रकाशन न प्रदीपं प्रयोजयति । न च प्रदीपोप्ययःकांतोपलकृष्टायःसूचीवत् स्वस्थानात्प्रच्युत्य मूत, णिग्गहमण, पर, सयं, बुद्धि, सिव, अपत्त । पातसंझ-परि नम नमीभावे, उपसर्गादर्थपरिवर्तनम्, सुण श्रवणे, रुस रोषे, तुस संतोषे, इ गतो, भण कयने, दि णि गह ग्रहणे, पास दर्शने, प इक्ख दर्शने, ग्या [न एति] नहीं जाता । [अशुभः या शुभः] अशुभ व शुभ [गुणः] गुण [त्वां इति न मरगति] तुझको यह नहीं कहता कि [मां दुध्यस्थ] तू मुझको 'जान [च] मौर [बुद्धिविषयं प्रागतं तु गुणं] बुद्धिके विषयमें पाये हुए गुणको [विनिहीतु] ग्रहण करनेके लिये [स एव] यह मात्मा भी अपने प्रदेशको छोड़ [न एति] नहीं जाता। [एतत्तु जात्या) अहो, ऐसा जानकर भी [मूढः] मूढ जोव [उपशमं मैव गच्छति] उपशमभावको नहीं प्राप्त होता [च] और [स्वयं शिवां बुद्धि अप्राप्तः] स्वयं कल्याणरूप बुद्धिको नहीं प्राप्त होता हुआ [परस्य विनिर्ग्रहमनाः] परके ग्रहण करनेका मन करने वाला होता है । तात्पर्य-न तो परद्रव्य प्रात्माको भोगनेके लिये प्रेरित करता है और न आत्मा भोगनेके लिये परद्रव्यके पास जाता है तब फिर मूढ बनकर क्यों दुःख किया जावे । ____टोकार्थ-जैसे यहाँ घटपटादि बाह्य पदार्थ जिस प्रकार देवदत्त यज्ञदत्तका हाथ पकड़कर उससे अपना कार्य करा लेता है, उस प्रकार दीपकसे यह नहीं कहते कि तू हमें प्रकाशित कर । और न दीपक भी चुम्बकसे प्राकृष्ट सुईकी तरह अपना स्थान छोड़कर उन पदार्थोंको प्रकाशित करने पहुंचता । किन्तु वस्तुस्वभाव दूसरेके द्वारा उत्पन्न होनेके लिये अशक्य होनेसे
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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