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जीनाजीनाधिकार अथ जीवाजीवावेकोभूती प्रविशतः। जीवाजीवविवेकपुष्कलदृशा प्रत्याययत्पार्षदानासंसारनिबद्धबंधनविधिध्वंसाद्विशुद्ध स्फुटत् । मात्माराममनंतधाममहसाध्यक्षेण नित्योदितं धीरोदात्तमनातलं विलसति ज्ञानं मनो ह्लादयत् ।।३३॥
अप्पाणमयागंता मूढा दु पर पवाद्रिणो केई । जीवं अन्झवसाणं कम्मं च तहा परूविति ॥३६॥ अवरे अझवसाणे-सु तिव्वमंदाणुभागगं जीवं । मगणंति तहा अवरे णोकम्मं चावि जीवोत्ति ॥४०॥ कम्मम्सुदयं जीवं अवरे कम्माणुभागमिच्छति । तिब्बत्तणमंदत्तणगुणोहिं जो सो हबदि जीवो ॥४१॥ जीवो कम्म उहयं दोरिणवि खलु केवि जीवमिच्छति । अवरे संजोगेण दु कम्माणं जीवमिच्छति ॥४२॥ एवंविहा बहुविहा परमप्पाणं वदंति दुम्मेहा । ते ण परमहवाई णिच्छयवाईहिं णिट्टिा ॥४३॥ मात्मा न जानि मोही, बहुतेरे परको प्रात्मा कहते ।
अध्यवसान तथा विधि को प्रातमरूपमें लखते ॥३६॥ नामसंज्ञ-अप्प, अयाणंत, मूढ, दु, परप्पबादि, केई, जीव, अज्झवसाण, कम्म, च, सहा, अवर, अज्भवसाण, तिश्चमंदाणुभागग, जीव, तहा, अवर, पोकम्म, च, अबि, जीव, इत्ति, कम्म, उदय, जीव, कम्माणुभाग, तिब्वत्तणमंदत्तणगुण, ज, त, जीव, जीव, कम्म, उह्य, दु, वि, खलु, क, वि, जीब, अवर,
मागे जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य ये दोनों एक होकर रंगभूमिमें प्रवेश करते हैं । इस के प्रारंभमें मंगलका अभिप्राय लेकर प्राचार्य शानकी प्रशंसा करते हैं कि जो सब वस्तुओंका जानने वाला यह ज्ञान है, वह जीव अजीवके सब स्वांगोंको अच्छी प्रकार पहचानता है, ऐसा सम्यग्ज्ञान प्रकट होता है । इसीके अर्थरूप श्लोक कहते हैं- 'जीवाजी' इत्यादि ।
अर्थ-ज्ञान है वह मनको प्रानंदरूप करता हुमा प्रगट होता है । वह जीव अजीवके स्वांगको देखने वाले महान् पुरुषोंको जीव अजीवका भेद देखने वालो बड़ी उज्ज्वल निर्दोष दृष्टि से भिन्न द्रव्यको प्रतीति कराता है, अनादि संसारसे जिनका बंधन दृढ़ बँधा हुआ है, ऐसे
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