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________________ ४१५ निर्जराधिकार जो सिद्धभत्तिजुत्तो उवगृहणगो दु सम्बधम्माणं । सो उवगृहणकारी सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो ॥२३३॥ जो सिद्धभक्तिप्तत्पर, मसिनभावोंको दूर करता है। वह बुध उपगृहक है, सम्यग्दृष्टी उसे जानो ॥२३३॥ यः सिद्धभक्तियुक्तः उपगृहनकस्तु सर्वधर्माणां । स उपगृहनकारी सम्यग्दृष्टिमन्तव्य: ॥२३३॥ __ यतो हि सम्यग्दृष्टिः टंकोत्कोणे कशापकभावमयत्येन समस्तामातीनामुपहलापुर बृहकः, ततोऽस्य जीवस्य शक्तिदौर्बल्यकृतो नास्ति बंधः किं तु निर्जरैव ।।२३३।। नामसंश-ज, सिद्धत्तिजुत्त, उवगृहणग, दु, सव्वधम्म, त, उघगृहणकारि, सम्मादिदि, मुणेयव्व। धातुसंज्ञ-उप-ग्रह संवरणे, भज सेवायां, मुण ज्ञाने। प्रातिपदिक यत्, सिद्धभक्तियुक्त, उपगृहनक, तु, सर्वधर्म, तत्, उपगूहनकारिन्, सम्यग्दृष्टि, मन्तव्य । मूलधातु-उप-गुहू संवरणे भ्वादि, भज सेवायां भ्वादि, मन ज्ञाने दिवादि । पदविवरण--- जो यः-प्रथमा एक०। निभत्तिजुत्तो सिद्धभक्तियुक्त:-प्रथमा एक० । उवग्रहणगो उपगृहनक:-प्रथमा एकः । दुतु-अव्यय । । व्वधम्माणं सर्वधर्माणां-षष्ठी बहुवचन । सो स:-प्र० ए० । उवगृहणकारी उपगृहनकारी-प्र० ए० । सम्मादिट्ठी सम्यग्दृष्टि:-प्रथमा एक० । मुणेयच्वो मन्तव्य:-प्रथमा एकवचन ।। २३३ ।। ३-सम्यम्दृष्टि समस्त प्रात्मशक्तियोंकी विकासवृद्धि करने वाला होनेसे उपवृहक है । ४-अनुपगृहनकृत बंध सम्यग्दृष्टिके नहीं होता । ५-सम्यग्दृष्टिके शक्तिदौर्बल्यकृत बंध नहीं है । सिद्धान्त -१-शुद्धात्मभावनाके बलसे सम्यग्दृष्टि विकारभावोंका विनाशक होता है । दृष्टि-१-शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्याथिकनय (२४ ब)।। प्रयोग–अविकार सहजसिद्ध चैतन्यस्वरूपके प्रवलंबनके बलसे समस्तविकारभावोंसे अलग रहना ॥२३३॥ अब स्थितिकरण गुण कहते हैं:- [यः] जो जीव [उन्मार्ग गच्छंतं] उन्मार्ग चलते हुए [स्वकं अपि अपनी आत्माको भी [मार्ग] मार्गमें [स्थापयति स्थापित करता है [सः चेतयिता] वह शानी [स्थतिकरणयुक्तः] स्थितिकरणगुणसहित [सम्यग्दृष्टिः] सम्यग्दृष्टि है [ज्ञातव्यः] ऐसा जानना चाहिये। टीकार्थ-सम्यग्दृष्टि निश्चयसे टकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावमयपनेके कारण सम्यग्दर्शन शान चारित्रस्वरूप मोक्षमार्गसे च्युत हुए अपनेको उसी मार्गमें स्थित करनेसे स्थिति. कारी है । इस कारण इसके मार्गच्यवनकृत बंध नहीं है किन्तु निर्जरा ही है । मावार्थ-जो अपने स्वरूपमय मोक्षमार्गसे चिगे हुएको उसी मार्गमें स्थापन करे वह स्थितिकरणगुणयुक्त है। उसके मार्गसे छूट जानेका बंध नहीं होता, मात्र उदय प्राये हुए कर्म रस खिराकर निर्जीर्ण हो
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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