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निर्जराधिकार जो सिद्धभत्तिजुत्तो उवगृहणगो दु सम्बधम्माणं । सो उवगृहणकारी सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो ॥२३३॥
जो सिद्धभक्तिप्तत्पर, मसिनभावोंको दूर करता है।
वह बुध उपगृहक है, सम्यग्दृष्टी उसे जानो ॥२३३॥ यः सिद्धभक्तियुक्तः उपगृहनकस्तु सर्वधर्माणां । स उपगृहनकारी सम्यग्दृष्टिमन्तव्य: ॥२३३॥
__ यतो हि सम्यग्दृष्टिः टंकोत्कोणे कशापकभावमयत्येन समस्तामातीनामुपहलापुर बृहकः, ततोऽस्य जीवस्य शक्तिदौर्बल्यकृतो नास्ति बंधः किं तु निर्जरैव ।।२३३।।
नामसंश-ज, सिद्धत्तिजुत्त, उवगृहणग, दु, सव्वधम्म, त, उघगृहणकारि, सम्मादिदि, मुणेयव्व। धातुसंज्ञ-उप-ग्रह संवरणे, भज सेवायां, मुण ज्ञाने। प्रातिपदिक यत्, सिद्धभक्तियुक्त, उपगृहनक, तु, सर्वधर्म, तत्, उपगूहनकारिन्, सम्यग्दृष्टि, मन्तव्य । मूलधातु-उप-गुहू संवरणे भ्वादि, भज सेवायां भ्वादि, मन ज्ञाने दिवादि । पदविवरण--- जो यः-प्रथमा एक०। निभत्तिजुत्तो सिद्धभक्तियुक्त:-प्रथमा एक० । उवग्रहणगो उपगृहनक:-प्रथमा एकः । दुतु-अव्यय । । व्वधम्माणं सर्वधर्माणां-षष्ठी बहुवचन । सो स:-प्र० ए० । उवगृहणकारी उपगृहनकारी-प्र० ए० । सम्मादिट्ठी सम्यग्दृष्टि:-प्रथमा एक० । मुणेयच्वो मन्तव्य:-प्रथमा एकवचन ।। २३३ ।। ३-सम्यम्दृष्टि समस्त प्रात्मशक्तियोंकी विकासवृद्धि करने वाला होनेसे उपवृहक है । ४-अनुपगृहनकृत बंध सम्यग्दृष्टिके नहीं होता । ५-सम्यग्दृष्टिके शक्तिदौर्बल्यकृत बंध नहीं है ।
सिद्धान्त -१-शुद्धात्मभावनाके बलसे सम्यग्दृष्टि विकारभावोंका विनाशक होता है । दृष्टि-१-शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्याथिकनय (२४ ब)।।
प्रयोग–अविकार सहजसिद्ध चैतन्यस्वरूपके प्रवलंबनके बलसे समस्तविकारभावोंसे अलग रहना ॥२३३॥
अब स्थितिकरण गुण कहते हैं:- [यः] जो जीव [उन्मार्ग गच्छंतं] उन्मार्ग चलते हुए [स्वकं अपि अपनी आत्माको भी [मार्ग] मार्गमें [स्थापयति स्थापित करता है [सः चेतयिता] वह शानी [स्थतिकरणयुक्तः] स्थितिकरणगुणसहित [सम्यग्दृष्टिः] सम्यग्दृष्टि है [ज्ञातव्यः] ऐसा जानना चाहिये।
टीकार्थ-सम्यग्दृष्टि निश्चयसे टकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावमयपनेके कारण सम्यग्दर्शन शान चारित्रस्वरूप मोक्षमार्गसे च्युत हुए अपनेको उसी मार्गमें स्थित करनेसे स्थिति. कारी है । इस कारण इसके मार्गच्यवनकृत बंध नहीं है किन्तु निर्जरा ही है । मावार्थ-जो अपने स्वरूपमय मोक्षमार्गसे चिगे हुएको उसी मार्गमें स्थापन करे वह स्थितिकरणगुणयुक्त है। उसके मार्गसे छूट जानेका बंध नहीं होता, मात्र उदय प्राये हुए कर्म रस खिराकर निर्जीर्ण हो