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________________ ४१४ समयसार दृष्टिः ततोऽस्य मुढदृष्टिकृतो नास्ति बंधः किं तु निर्जरैब ।।२३२॥ असंमूढः-प्रथमा एक० । चेदा चेतयिता-प्रथमा एक० । सव्वेसु सर्वेषु-सप्तमी बहु० । कम्मभायेषु कर्मभावेषु-सप्तमी बहु० । सो सः-प्रथमा एक० 1 अमूडदिट्ठी अमूढदृष्टि:-प्र० एक०। सम्मादिट्ठी सम्यग्दृष्टि:प्रथमा एक० । मुणयन्वो मन्तव्यः-प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया ।। २३२ ॥ प्रसंगविधरण-अनन्तरपूर्व गाथामें सम्यग्दृष्टिके निविचिकित्सित प्रङ्गका वर्णन किया गया था । अब इस गाथामें अमूढदृष्टि अंगका वर्णन किया गया है । तथ्यप्रकाश-१ सम्यग्दृष्टि निजसहजात्मत्वके श्रद्धान ज्ञान आचरणके बलसे शुभाशुभकर्मजनित परिणामों में निर्मोह रहता है । २-सम्यग्दृष्टि बाह्यविषयोंमें अमूह रहता है। ३-सम्यग्दृष्टि परसमयमें मूढ नहीं है । ४-सम्यग्दृष्टिके मूढताकृत बन्ध नहीं है। सिद्धान्त-१-निश्चयरत्नत्रयभावनाके बलसे जीव परभावोंमें मूढ नहीं होता । दृष्टि-१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब) । प्रयोग-कर्मविपाकज समस्त भावोंको प्रात्मस्वरूपसे भिन्न जानकर उनमें सर्वथा प्रसम्मूढ रहना ॥२३२।३ अब उपगूहन गुण कहते हैं-[यः] जो जीव [सिद्धभक्तियुक्तः] सिद्धोंको भक्तिसे युक्त हो [तु] और [सर्वधर्मारणां] औपाधिक सब धर्मोका [उपग्रहनकः] गोपने वाला हो [सः] वह [उपगृहनकारी] उपगृहनकारी [सम्पादृष्टिः] सम्यग्दृष्टि है [ज्ञातव्यः] ऐसा जानना चाहिये। तात्पर्य जो विकारभावोंको प्रकट न होने दे और प्रात्मशक्तिको बढ़ावे वह ज्ञानी स्थितिकरणपालक है। टीकार्य-सम्यग्दृष्टि निश्चयसे टंकोत्कोणं एक ज्ञायक भावपनेसे समस्त प्रात्मशक्तियोंको बढ़ानेसे उपवंहक होता है, इस कारण इसके जीवशक्तिके दुर्बलपनेसे किया गया बंध नहीं है किंतु निर्जरा ही है। भावार्थ-सम्यग्दृष्टि जीव प्राश्रयभूत पदार्थका त्यागकर विकार भावोंको प्रकट नहीं होने देता और अन्तःप्रकाशमान निज ज्ञायक भावको ही शानमें रखता है, वह सम्यग्दृष्टि उपगृहक है व उपव॑हक है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें सम्यग्दृष्टिके अमूढदृष्टि अंगका वर्णन किया गया पा। अब इस गाथामें क्रमप्राप्त उपगृहन अंगका वर्णन किया गया है। तथ्यप्रकाश-१-सम्यग्दृष्टि शुद्धात्मभावनारूप पारमार्थिक सिद्धिभक्तिसे युक्त है। २- सम्यग्दृष्टि मिथ्यात्वरागादिविभावधर्मोका प्रच्छादक होता है, विनाशक होता है ।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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