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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार जैसे शिल्पी करता, भूषण कम नहि कर्ममें तन्मय । वैसे जीव भि करता, कर्म नहीं कर्मसे तन्मय ॥३४६।। जैसे शिल्पी करता, करणोंसे करगमें नहीं सन्मय । वैसे जीव भि करता, करणोसे किन्तु नहिं तन्मय ॥३५०॥ जैसे शिल्पी गहता, करखोंको करणमें नहीं तन्मय । वैसे जीव भि गहता, करणोंको किन्तु नहिं तन्मय ॥३५१॥ ज्यौं शिल्पी कृतिफलको, भोगे फलसे न तन्मयो होता। त्यों शिल्पी कृतिफलको, भोगे नहिं तन्मयो होता ॥३५२॥ त्यौं ध्ययहाराशयका, दर्शन संक्षेपसे बताया है। अब निज परिणाम विहित, निश्चयनयका वचन सुनिये ॥३५३|| ज्यौं शिल्पी करता है, या उससे अक्षय होस का । स्यौं भावकर्म करता, जीव भि उससे अनन्य हुमा ॥३५४॥ ज्यों चेष्टा करता यह, शिल्पी फलमें अभिन्न दुख पाता।
त्यों चेष्टा कर प्रात्मा, फलमें भि अभिन्न दुख पाता ॥३५५।। तु, ज, चिट्ठ, अणण्ण, त, णिच्चदुक्खिअ, तत्तो, अणण्ण, चेट्टत, दुहि, जीव । धातुसंश-कुन्च करणे, हो सत्तायां, गिण्ह ग्रहणे, मुंज भोगे, सुण श्रवणे, हव सत्तायां, चेट्ठ चेष्टायां । प्रातिपदिक-यथा, शिल्पिक, तु] जैसे शिल्पी [कर्म] प्राभूषणादिक कर्मको [करोति] करता है [तु स] परन्तु वह [तन्मयो न च भवति] माभूषणादिकोंसे तन्मय नहीं होता [तथा] उसी तरह [जीवोपि च] जीव भी
कर्म] पुद्गलकर्मको किरोति] करता है । [च तो भी [तन्मयो न भवति कर्मसे तन्मय नहीं होता। [यथा] जैसे [शिल्पिकः] शिल्पी [कररणैः] हथौड़ा प्रादि करणोंसे [करोति] कर्म करता है । [तु सः] परन्तु वह [तन्मयो न भवति] उनसे तन्मय नहीं होता [तथा) उसी तरह [जीवः] जीव भी [करणः करोति] मन, वचन, काय प्रादि करणोंसे कर्मको करता है [च] तो भी [तन्मयो न भवति] करणोंसे तन्मय नहीं होता। [यथा] जैसे [शिल्पिकः] शिल्पी [करणानि] करणोंको [गृह्णाति] ग्रहण करता है [तु] तो भी [स तु] वह [तन्मयो न भवति] उनसे तन्मय नहीं होता [तया] उसी तरह [जीवः] जीव [करणानि गृह्णाति] मन, वचन, कायरूप करणोंको ग्रहण करता है [तु च] तो भी [तन्मयो न भवति] उनसे तन्मय नहीं होता । [यथा] जैसे {शिल्पी तु] शिल्पो [कर्मफलं] प्राभूषणादि कोके फलको [भुक्ते] भोगता है [तु च] तो भी [सः] वह उनसे [तन्मयो न भवति] तन्मय नहीं होता