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समयसार
एवं द्रव्यभावयोरस्ति निमित्तनमित्तिकभावः ॥ इत्यालोच्य विवेच्य तकिल परद्रव्यं समग्रं बलात्तन्मूल बहुभावसंततिमिमामुद्धर्तुकामः समं । प्रात्मानं समुपैति निर्भरवहत्पूर्णकसंविद्युत यनोन्मूलितबंध एष भगवानात्मात्मनि स्फूर्जति ।। १७८।। रागादोनामुदयमदयं दारयत्कारणानां कार्य बंधं विविधमधुना सद्य एव प्रणुध । ज्ञानज्योतिः क्षपिततिमिरं साधु सन्नद्ध मेतत्तद्वद्यद्वएक ! गाणी ज्ञानी-प्रथमा एक ० । परदध्वगुणा परद्रध्यगुणा:-प्र० बहु । उ तु-अव्यय । जे ये-प्रथमा बहु० । णिचं नित्यं-अव्यय । आधाकम्म अध:कर्म-प्रथमा एकवचन । उई सियं उद्देशिक-प्र० एका । च-अव्यय । पोग्गलमयं पुद्गलमयं-प्र० एक० । इमं इदं-प्र० ए०। दब्वं द्रव्य-प्र०ए० । कह कथं-अव्यय । तं तत्-प्र० ए० । मम-षष्टी एका० । होइ भवति-वर्तमान लट् उत्तम पुरुष एक क्रिया । कयं कृतं-प्रथमा प्रखर पुरुषार्थसे विदारण करती हुई, उस रागादिके कार्यरूप ज्ञानावरणादि अनेक प्रकारके बंधको अब तत्काल ही दूर करके, जिसने प्रज्ञानरूपी अन्धकारका नाश किया है ऐसी यह ज्ञानज्योति सही ऐसी सज्जित हुई कि अब उसके विस्तारको अन्य कोई प्रावृत नहीं कर सकता । भावार्थ-जब ज्ञान प्रकट होता है तब सगादिक नहीं रहते, उनका कार्य कर्मबन्ध. भी नहीं होता तब फिर इसके विकासको रोकने वाला कोई नहीं रहता, सदा प्रकाशमान ही
इस तरह बंध स्वांगको दूर कर निकल गया ।
प्रसंगविवरण----अनन्तरपूर्व गाथात्रयमें द्रव्य व भाव में निमित्तनैमित्तिकभाव दति हुए बताया गया था कि प्रात्मा रागादिका अकारक है। अब इन दो गाथावोंमें द्रव्य व भाव में स्थित निमित्तनैमित्तिकभावका उदाहरण बताया है।
तथ्यप्रकाश--(१) परद्रव्यप्रसंग व विकारभाव में निमित्तनैमित्तिक भाव है। (२) अधःकर्मनिष्पन्न व उद्दिष्ट आहार पुगलद्रव्यमय है । (३) पुद्गलद्रव्यमय आहारके दोष गुण मुनि ज्ञानी द्वारा नहीं किये जा सकते । (४) पुद्गलद्रव्यमय आहारमें मन वचन कायसे कृत कारित अनुमोदनाका प्रसंग करे तो उसके बन्ध होता1 (५) यदि परकृत पाहारमें मन वचन कायसे कृत कारित अनुमोदनाका भाव रंच भी न हो तो उसके बन्ध नहीं होता। (६) भेदज्ञान होनेपर निश्चयरत्नत्रयके साधक संत जनोंके योग्य आहारके विषयमें भी मन वचन काय कृत कारित अनुमोदनाका भाव नहीं रहता । (७) मनकोटि विशुद्ध मुनियोंके परकृतीहारादि विषयमें बन्ध नहीं है । (८) यदि परकीय परिणामसे बन्ध होने लगे तब तो फिर किसी भी कालमें निर्वाण नहीं हो सकता।
'सिद्धान्त-(१) कर्मबन्धका निमित्त स्वकीय रागादि प्रज्ञानमय परिणाम है । (२)