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बन्धाधिकार
४८४ प्रत्याचष्टे । यथा चाधःकर्मादीन पुद्गलद्रव्यदोषान्न नाम करोत्यात्मा परद्रव्यपरिणामत्वे सति प्रात्मकार्यत्वाभावात् । ततोऽधःकर्मोह शिकं च पुद्गलद्रव्यं न मम कार्य, नित्यमचेतनत्वे सति मत्कार्यत्वाभावात् इति तत्त्वज्ञानपूर्वकं पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतं प्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बंधसाधकं भावं प्रत्याचष्टे तथा समस्तमपि परद्रव्यं प्रत्याचक्षारणस्तन्निमित्तं भावं प्रत्याचष्टे । कुव्य करणे, हो सत्तायां, वच्च परिभाषणे । प्रातिपदिक-अधःकर्माद्य, पुद्गलद्रव्य, यत्, इदम्, दोष, कथं, तान्, ज्ञानिन्, परद्रव्यगुण, तु, यत्, नित्यं, अध:कर्मन्, उद्देशिक, च, पुदगलमय, इदम्, द्रव्य, कथं, तत्, अस्मत्, कृत, यत्, नित्य, अचेतन, उक्त । मूलधातु-दुखद करणे, माया । विवरण - आधा कम्पा. ईया अधःकर्माद्या:-प्रथमा बहुवचन । पुग्गलदचस्स पुद्गलद्रव्यस्य-षष्ठी एक० । जे ये इमे इमे दोसा दोषाः-प्रथमा बहु० । कह कथ-अव्यय । ते तान्-द्वितीया बहु० । कुव्वइ करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष का निमित्तनैमित्तिकभाव है । भावार्थ---जो आहार पापकर्मसे उत्पन्न हो उसे अधःकर्मनिष्पन्न कहते हैं । जो आहारमात्र किसीके निमित्त ही बना हुआ हो उसे उद्देशिक कहते हैं। इन दोनों प्रकारके प्राहारका जो पुरुष सेवन करे उसके वैसे ही भाव होते हैं इस तरह द्रव्य और भावका जैसे निमित्तनैमित्तिक संबंध है, उसी तरह समस्त द्रव्योंका भावके साथ निमित्तनैमितिक सम्बन्ध जानना कि जो परद्रध्यको ग्रहण करता है, उसके रागादिभाव होते हैं उनका कर्ता होता है और कर्मका बंध करता है। किन्तु जब ज्ञानी हो जाता है तब किसीके ग्रहण करनेका राग नहीं, रागादिरूप परिणामन भी नहीं, तब कर्मबंध भी नहीं होता। इस प्रकार सिद्ध हुमा कि ज्ञानी परद्रव्यका कर्ता नहीं है।
अब परद्रव्यके त्यागका उपदेश करते हैं-इत्यालोच्य इत्यादि । अर्थ-इस प्रकार परद्रध्यका और अपने भावका निमितनैमित्तिकपना विचारकर परद्रव्यमूलक बहुभावोंकी परि. पाटोको युगपत् उखाड़ फेंकनेका इच्छुक समस्त परद्रव्यको बलपूर्वक अलग करके अतिशयसे धारावाही पूर्ण एक संवेदनयुक्त अपने प्रात्माको प्राप्त होता है । जिससे कि जिसने कर्मबंधन मूलसे उखाड़ दिये हैं, ऐसा यह भगवान् आत्मा अपने प्रात्मामें ही स्फुरायमान होता है याने प्रकट होता है । भावार्थ-परद्रव्य और अपने भावका निमित्तनैमित्तिकभाव जानकर यात्महितेच्छु समस्त परद्रव्यका त्याग करे तो समस्त रागादिभावोंकी संतति हट जाती है, और तब प्रात्मा अपना ही अनुभव करता हुआ कर्मके बन्धनको काटकर स्वयंमें ही प्रकाशरूप प्रकट होता है।
अव बन्धका अधिकार पूर्ण होते समय अंतमें मंगलरूप ज्ञानको महिमा इस कलशमें कहते हैं- रागादि इत्यादि । अर्थ---बंधके कारणरूप रागादिके उदयको निर्दयतापूर्वक याने